Monday, 21 February 2011

॥ श्री काली दीन जी ॥


 ॥ श्री काली दीन जी ॥

पद:-
मन तुम प्रेत समान सतावत।
सुमिरन पाठ कीर्तन पूजन में हमको बिलगावत।
नाच तमाशा स्वांग बिषय में तब कहुँ भागि न जावत।
नीक कहैं नेकों नहिं समुझत ऊपर डाँट सुनावत।
का नुकसान कीन तुमरा हम कहि क्यों नहिं समुझावत।५।

गर्भ में जौन करार किह्यो संघ सो मिलि नाहिं चुकावत।
अब नहिं चले जबरदस्ती यह श्री गुरु ढिग हम जावत।
राम नाम बिधि जानि लेय तब देखैं कहां लुकावत।
मित्र भाव आखिर तब करिहौ अब ही पास न आवत।
लै परकाश ध्यान धुनि पैहौ जो भव ताप नसावत।१०।

सीता राम रहैं नित सन्मुख जो सब में छबि छावत।
काली दीन कहैं यह मारग भाग्यवान कोइ पावत।१२।

दोहा:-
मन तोता मानै नहीं काटै फल बहु धाय।
भूखा ज्यों का त्यों रहै निज स्वभाव नहिं जाय।१।
मन मर्कट मानै नहीं घूमै डारै डार।
चोट खाय गिरि फिर चढ़ै निज स्वभाव उर धार।२।
श्री गुरु बिन नहिं होय बस कहते काली दीन।
चंचलता या की कठिन जानि नाम जप लीन।३।








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पलटू साहब के पद


दोहा:-
पलटू उधर को पलटिगे उधर इधर भा एक।
सतगुरु से सुमिरन सिखै फरक परै नहिं नेक।१।

चौपाई:-
फरक परे नहिं नेक शब्द पै सूरति दीन्हे।१।
ध्यान धुनी परकास दसा लै रूप को चीन्हे।२।
सुर मुनि आशिष देंय भये निज कुल परवीने।३।
पलटू कह तन त्यागि अचलपुर बासा लीन्हे।४।

दोहा:-
आपै आपको जानते आपै का सब खेल।
पलटू सतगुरु के बिना ब्रह्म से होय न मेल।१।

चौपाई:-

ब्रह्म से होय न मेल कथैं संतन की बानी।
लोग कहैं है सिद्ध राह निज पुर की जानी।२।
जग में खातिर होत अंत में हो हैरानी।
पलटू सतगुरु शरनि बिना अंधे अज्ञानी।३।

चौपाई:-
जीवन मुक्त जियति सब जाना। तब हो भक्त रूप भगवाना॥
सतगुरु का प्रथमै करि ध्याना। तब घट भीतर घुस के छाना॥
जो कोइ भजन कि बिधि को जाना।
वा से यह सब बात बताना॥
शुद्ध धान्य है भजन खजाना। पलटू कह साधक हो दाना।४।

पद:-
सतगुरु करो मारग मिलै बनि दीन सच्चे दास हो।
दो बजे निशि में उठो साधन में बारह मास हो।
सिद्धांत सब सुना का पड़ी तब दुख भव का नास हो।
अनहद सुनो अमृत पियो हानि नाम लै परकास हो।
नागिनि जगै चक्कर चले कमलन क उलटि विकास हो।५।

सुर मुनि मिलैं उर में लगा बोले भजन में पास हो।
खट रूप का तस रीफ लाना सामने में खास हो।
अंधे कहै तन त्यागि लो निज वतन में वास हो।८। 

सात शरीर और सात चक्र—(।)



सात शरीर ओर सात चक्र--ओशो

पहला शरीर—मूलाधार चक्र
जैसे सात शरीर है, ऐसे ही सात चक्र भी है। और प्रत्‍येक एक चक्र मनुष्‍य के एक शरीर से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, इस शरीर का जो चक्र है वह मूलाधार है; वह पहला चक्र है। इस मूलाधार का भौतिक शरीर से केंद्रीय संबंध है; यह भौतिक शरीर का केंद्र हे। इस मूलाधार चक्र की दो संभावनाएं है। एक इसकी प्रकृतिक संभावना है, जो हमें जन्‍म से मिलती है। और एक साधना की संभावना है, जो साधना से उपलब्‍ध होती है।
मूलाधार चक्र की प्राथमिक प्राकृतिक संभावना कामवासना है, जो हमें प्रकृति से मिलती है। वह भौतिक शरीर की केंद्रीय वासना है। अब साधक के सामने पहला ही सवाल यह उठेगा कि वह जो केंद्रीय तत्‍व है उसके भौतिक शरीर का, इसके लिए क्‍या करे। और इस चक्र की एक दूसरी संभावना है, जो साधना से उपलब्‍ध होगी, वह है ब्रह्मचर्य। सेक्‍स इसकी प्राकृतिक संभावना है और ब्रह्मचर्य इसकी ट्रांसफॉमेंशन है, इसका रूपांतरण है। जितनी मात्रा में चित कामवासना से केंद्रित और ग्रसित होगा उतना ही मूलाधार अपनी अंतिम संभावनाओं को उपलब्‍ध नहीं कर सकेगा। उसकी अंतिम संभावना ब्रह्मचर्य है। उस चक्र की दो संभावनाएं है: एक जो हमें प्रकृति से मिली, और एक जो हमें साधना से मिलेगी।
न भोग, न दमन—वरन जागरण
अब इसका मतलब यह हुआ कि जो हमें प्रकृति से मिली है उसके साथ हम दो काम कर सकते है : या तो जो प्रकृति से मिला है हम उसमें जीते रहें,तब जीवन में साधना शुरू नहीं हो पायेंगे; दूसरा काम जो संभव है वह यह कि हम इसे रूपांतरित करें।
रूपांतरण के पथ पर जो बड़ा खतरा है वह खतरा यहीं है कि कहीं हम प्राकृतिक केंद्र से लड़ने न लगें। साधक के मार्ग में खतरा क्‍या है? या तो जो प्राकृतिक व्‍यवस्‍था है वह उसको भोगे, तब वह उठ नहीं पाता उस तक जो चरम संभावना है—जहां तक उठा जा सकता था; भौतिक शरीर जहां तक उसे पहुंचा सकता था वहाँ तक वह नहीं पहुंच पाता; जहां से शुरू होता है वहीं अटक जाता है। तो एक तो भोग है, दूसरा दमन है कि उससे लड़े। दमन बाधा है साधक के मार्ग पर—पहले केंद्र की जो बाधा है; क्‍योंकि दमन के द्वारा कभी ट्रांसफॉमेंशन (रूपांतरण) नहीं होता।
दमन बाधा है तो साधक क्‍या बनेगा? साधन क्‍या होगा? समझ साधन बनेगी, अंडरस्‍टैंडिंग साधन बनेगी। कामवासना को जो जितना समझ पायेगा उतना ही उसके भीतर रूपांतरण होने लगेगा। उसका कारण है; प्रकृति के सभी तत्‍व हमारे भीतर अंधे और मूर्छित है। अगर हम उन तत्‍वों के प्रति होश पूर्ण हो जायें तो उनमें रूपांतरण होना शुरू हो जाता है।
जैसे ही हमारे जैसे ही हमारे भीतर कोई चीज जागनी शुरू होती है वैसे ही प्रकृति के तत्‍व बदलने शुरू हो जाते है। जागरण कीमिया है, अवेयरनेस केमिस्‍ट्री है उनके बदलने की, रूपांतरण की। तो अगर कोई अपनी कामवासना के प्रति पूरे भाव और पूरे चित पूरी समझ से जागे, तो उसके भीतर कामवासना की जगह ब्रह्मचर्य का जन्‍म शुरू हो जाता है। और जब तक कोई पहले शरीर पर ब्रह्मचर्य पर न पहुंच जाये तब तक दूसरे शरीर की संभावनाओं के साथ काम करना बहुत कठिन है।

MILK & KAMVASNA

दूध असल में अत्‍यधिक कामोत्तेजक आहार है और मनुष्‍य को छोड़कर पृथ्‍वी पर कोई पशु इतना कामवासना से भरा हुआ नहीं है। और उसका एक कारण दूध है। क्‍योंकि कोई पशु बचपन के कुछ समय के बाद दूध नहीं पीता, सिर्फ आदमी को छोड़ कर। पशु को जरूरत भी नहीं है। शरीर का काम पूरा हो जाता है। सभी पशु दूध पीते है अपनी मां का, लेकिन दूसरों की माताओं का दूध सिर्फ आदमी पीता है और वह भी आदमी की माताओं का नहीं जानवरों की माताओं का भी पीता है।
दूध बड़ी अदभुत बात है, और आदमी की संस्‍कृति में दूध ने न मालूम क्‍या-क्‍या किया है, इसका हिसाब लगाना कठिन है। बच्‍चा एक उम्र तक दूध पिये,ये नैसर्गिक है। इसके बाद दूध समाप्‍त हो जाना चाहिए। सच तो यह है, जब तक मां का स्‍तन से बच्‍चे को दूध मिल सके, बस तब तक ठीक हे। उसके बाद दूध की आवश्‍यकता नैसर्गिक नहीं है। बच्‍चे का शरीर बन गया। निर्माण हो गया—दूध की जरूरत थी, हड्डी थी, खून था, मांस बनाने के लिए—स्‍ट्रक्‍चर पूरा हो गया, ढांचा तैयार हो गया। अब सामान्‍य भोजन काफी है। अब भी अगर दूध दिया जाता है तो यह सार दूध कामवासना का निर्माण करता है। अतिरिक्‍त है। इसलिए वात्‍सायन ने काम सूत्र में कहा है कि हर संभोग के बाद पत्‍नी को अपने पति को दूध पिलाना चाहिए। ठीक कहा है।
दूध जिस बड़ी मात्रा में वीर्य बनाता है, और कोई चीज नहीं बनाती। क्‍योंकि दूध जिस बड़ी मात्रा में खून बनाता है और कोई चीज नहीं बनाती। खून बनता है, फिर खून से वीर्य बनता है। तो दूध से निर्मित जो भी है, वह कामोतेजक है। इसलिए महावीर ने कहा है,वह उपयोगी नहीं है। खतरनाक है, कम से कम ब्रह्मचर्य के साधक के लिए खतरनाक है। ठीक से,काम सुत्र में और महावीर की बात में कोई विरोध नहीं है। भोग के साधक के लिए सहयोगी है, तो योग के साधक के लिए अवरोध है। फिर पशुओं का दूध है वह, निश्‍चित ही पशुओं के लिए,उनके शरीर के लिए, उनकी वीर्य ऊर्जा के लिए जितना शक्‍ति शाली दूध चाहिए। उतना पशु मादाएं पैदा करती है।
जब एक गाए दूध पैदा करती है तो आदमी के बच्‍चे के लिए पैदा नहीं करती, सांड के लिए पैदा करती है। ओर जब आदमी का बच्‍चा पिये उस दूध को और उसके भीतर सांड जैसी कामवासना पैदा हो जाए, तो इसमें कुछ आश्‍चर्य नहीं है। वह आदमी का आहार नहीं है। इस पर अब वैज्ञानिक भी काम करते है। और आज नहीं कल हमें समझना पड़ेगा कि अगर आदमी में बहुत सी पशु प्रवृतियां है तो कहीं उनका कारण पशुओं का दूध तो नहीं है। अगर उसकी पशु प्रवृतियों को बहुत बल मिलता है तो उसका करण पशुओं का आहार तो नहीं है।
आदमी का क्‍या आहार है, यह अभी तक ठीक से तय नहीं हो पाया है, लेकिन वैज्ञानिक हिसाब से अगर आदमी के पेट की हम जांच करें, जैसाकि वैज्ञानिक किये है। तो वह कहते है , आदमी का आहार शाकाहारी ही हो सकता है। क्‍योंकि शाकाहारी पशुओं के पेट में जितना बड़ा इंटेस्‍टाइन की जरूरत होती है, उतनी बड़ी इंटेस्टाइन आदमी के भीतर है। मांसाहारी जानवरों की इंटेस्‍टाइन छोटी और मोटी होती है। जैसे शेर, बहुत छोटी होती है। क्‍योंकि मांस पचा हुआ आहार है, अब बड़ी इंटेस्‍टाइन की जरूरत नहीं है। पचा-पचाया है, तैयार है। भोजन। उसने ले लिया, वह सीधा का सीधा शरीर में लीन हो जायेगा। बहुत छोटी पाचन यंत्र की जरूरत है।
इसलिए बड़े मजे की बात है कि शेर चौबीस घंटे में एक बार भोजन करता है। काफी है। बंदर शाकाहारी है, देखा आपने उसको। दिन भर चबाता रहता है। उसका इंटेस्‍टाइन बहुत लंबी है। और उसको दिन भर भोजन चाहिए। इसलिए वह दिन भर चबाता रहता है।
आदमी की भी बहुत मात्रा में एक बार एक बार खाने की बजाएं, छोटी-छोटी मात्रा में बहुत बार खाना उचित है। वह बंदर का वंशज है। और जितना शाकाहारी हो भोजन उतना कम उतना कम कामोतेजक हे। जितना मांसाहारी हो उतना कामोतेजक होता जाएगा।
दूध मांसाहार का हिस्‍सा है। दूध मांसाहारी है, क्‍योंकि मां के खून और मांस से निर्मित होता है। शुद्धतम मांसाहार है। इसलिए जैनी, जो अपने को कहते है हम गैर-मांसाहारी है, कहना नहीं चाहिए, जब तक वे दूध न छोड़ दे।
केव्‍कर ज्‍यादा शुद्ध शाकाहारी है क्‍योंकि वे दूध नहीं लेते। वे कहते है, दूध एनिमल फूड हे। वह नहीं लिया जा सकता। लेकिन दूध तो हमारे लिए पवित्रतम है, पूर्ण आहार है। सब उससे मिल जाता है, लेकिन बच्‍चे के लिए, और वह भी उसकी अपनी मां का। दूसरे की मां का दूध खतरनाक है। और बाद की उम्र में तो फिर दूध-मलाई और धी और ये सब और उपद्रव है। दूध से निकले हुए। मतलब दूध को हम और भी कठिन करते चले जाते है, जब मलाई बना लेते है। फिर मक्खन बना लेते है। फिर घी बना लेते है। तो घी शुद्धतम कामवासना हो जाती है। और यह सब अप्राकृतिक है और इनको आदमी लिए चला जाता है। निश्‍चित ही, उसका आहार फिर उसके आचरण को प्रभावित करता है।
तो महावीर ने कहा है, सम्‍यक आहार,शाकाहारी,बहुत पौष्‍टिक नहीं केवल उतना जितना शरीर को चलाता है। ये सम्‍यक रूप से सहयोगी है उस साधक के लिए, जो अपनी तरफ आना शुरू हुआ।
शक्‍ति की जरूरत है, दूसरे की तरफ जाने के लिए शांति की जरूरत है, स्‍वयं की तरफ आने के लिए। अब्रह्मचारी,कामुक शक्‍ति के उपाय खोजेगा। कैसे शक्‍ति बढ़ जाये। शक्‍ति वर्द्धक दवाइयां लेता रहेगा। कैसे शक्‍ति बढ़ जाये। ब्रह्मचारी का साधक कैसे शक्‍ति शांत बन जाए,इसकी चेष्‍टा करता रहेगा। जब शक्‍ति शांत बनती है तो भीतर बहती है। और जब शांति भी शक्‍ति बन जाती है तो बाहर बहनी शुरू हो जाती है।

Paltu sahab


सुनो ये अद्भुत बचन—
कौन करे बनियाई, अब मोरे कौन करे बनियाई।
त्रिकुटी में है भरती मेरी, सुखमन में है गादी।
दसवें द्वारे कोठी मेरी, बैठा पुरूष अनादि।
इंगला-पिंगला पलरा दूनौं, लागी सुरति की जोति।
सत सबद की डांडी पकरौं, तौलौं भर-भर मोती।
चाँद-सूरज दोउ करें रखवारी, लगी सत ही ढेरी।
तुरिया चढी के बेचन लागा, ऐसी साहिबी मेरी।
सत गुरु साहिब किहा सिपारस, मिली राम मुदियाई।
पलटू के घर नौबत बाजत, निति उठ होति सबाई।
तीसरी बात जो पता है उनके संबंध में वे दो भाई थे। और दोनों ही पलटू हो गये। बाहर के धन की फिक्र छोड़ दी और भीतर का धन खोजने लगे। खोजने ही नहीं लगे खोज ही लिया।
दोनों भाई बदल गए। बदलने के कारण गुरु ने दोनों को पलटू नाम दे दिया। एक भाई को पलटू प्रसाद और दूसरे भाई को पलटू दास। यह शब्‍द बड़ा प्‍यारा दिया गुरु ने ‘’पलटू’’ ईसाई जिसको कन्वर्शन कहते है। पलट गए। कहीं जाते थे और ठीक उलटे चल पड़े। और ऐसे पलटे कि क्षण में दूसरे हो गये। कोई देर दार नहीं की। सोच-विचार नहीं किया। कहां बाजरा में गादी लगा केर बैठे थे और कहां सूक्ष्म में गादी लगा दी। कहां तोलते थे—आनाज तौलते थे। और कहां ‘सत शब्‍द की ढेरी’। ये तौलने लगे। और कहां साधारण चीजें बेचते थे और कहां बेचने लगे तुरिया: समाधि बेचने लग गये। ऐसा रूपांतरण था कि गुरु ने कहा कि तुम बिलकुल ही पलट गए। ऐसा मुश्‍किल से होता है। यह क्रांति थी।
‘पलटू’ नाम का अर्थ होता है क्रांति। एक बड़ी अपूर्व क्रांति हुई। यह नाम भी बड़ा प्‍यारा है। असली नाम का तो कुछ पता नहीं है। असली नाम यानी मां-बाप ने जो नाम दिया था। उस नाम का तो कुछ पता नहीं है। गुरु ने जो नाम दिया था वह यह था। और गुरु ने खूब प्‍यारा नाम दिया। बड़ा सांकेतिक नाम दिया। दो-दो चार-चार पैसे के लिए दुकान करते रहे होंगे। और जब पलट गए तो ऐसी क्रांति घटी।
उनके भाई पलटू प्रसाद ने पलटू के संबंध में कुछ वचन लिखे है:
नंगा जलाल पुर जन्‍म भयो है, बसै अवध के खोर।
कहै पलटू प्रसाद हो भयो, जगत में सोर।।
चार वरण की मेटिके भक्‍ति चलाई मूल।
गुरु गोविंद गे बाग़ में पलटू फूले फूल।
गरीब गांव में पैदा हुए थे, नाम ही था: नंगा जलाल पुर। तुम सोच ही सकते हो: नंगा जलाल पुर। गरीबों का गांव होगा। बिलकुल नंगों का गांव होगा। और जा कर बस गये अवध में अयोध्‍या में बस गए। गृहस्‍थ पैदा हुए थे। फिर संन्‍यस्‍त हो गए। धन, पद, मद, में डूबे थे—फिर एक दिन राम की महिमा में उतर गए।
पलटू के शब्‍द ऐसे है जैसे आग्‍नेय है। जैसे कबीर दास के। बड़े ऊंचे घाट के शब्‍द हे और बड़े चोट करने वाले। ठीक अगर कबीर के साथ किसी दूसरे को हम खड़ा कर सकें, तो वह है पलटू बनिया। इसमें कोई अतिशयोक्‍ति नहीं हे। तुम जब उनके पदों में उतरोगे। तुम भी पाओगे। बड़ी ऊंची बात और बड़ी सचोट है। ह्रदय मे उतर जाए। तुम्‍हारे पोर-पोर में भर जाए—ऐसी बात है। रसपूर्ण भी उतनी ही जितनी सचोट। मस्ती भी उतनी ही जैसी कबीर की। एक-एक शब्‍द से खूब शराब झरती है। डुबकी लेना।

Thursday, 10 February 2011