Thursday 31 October 2013

‘वेदों में गोमांस? ‘ प्रथम भाग में हम ने वेदों पर लगाए गए गोमांसाहार और पशुबलि के आरोपों की गहराई से जाँच की और पर्याप्त प्रमाणों से यह बताया कि-
१. वेद पशुओं और निर्दोष प्राणियों की हिंसा के सख्त खिलाफ हैं.
२. वेद में यज्ञ की परिभाषा ही अहिंसा से होने वाला अनुष्ठान है और वैदिक मूल्य पशु बलि के सख्त खिलाफ हैं.
३. गोमांसाहार के विपरीत, वेद गाय की रक्षा करने और उसके हत्यारों को अत्यंत कठोर सज़ा देने के निर्देश देते हैं.
इस लेख के प्रकाशन के बाद वेदों को बदनाम करने की मुहिम पर लगाम लगी है. इसके प्रमाणों के प्रतिवाद में आज तक कोई संतोषकारी जवाब नहीं मिला.फिर भी कुछ लोग छुट- पुट आरोप लगाते रहते हैं. अपने पक्ष में यह लोग अज्ञानी और वेदों के अनुवाद में अक्षम पाश्चात्य लोगों के वैदिक साहित्य के अनुवादों से अपमानजनक और बेहूदे अवतरणों को लेकर प्रस्तुत करते रहते हैं.
यहाँ हम ऐसे ही कुछ आरोपों का जवाब देंगे ताकि आगे भी कोई गुमराह न कर सके. अधिक जानकारी के लिए लेख के प्रथम भाग में दी गयी सन्दर्भों की सूची देखें.
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Vedas Myth and Reality (English)
The 4 Vedas Complete (Hindi)
The 4 Vedas Complete (Hindi)
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आरोप १ : वेद में यज्ञों का बहुत गुणगान किया गया है. और यज्ञों में पशु बलि दी जाती थीयह सभी जानते हैं. 
उत्तर : यज्ञ शब्द ‘यज’ धातु  में ‘ नड्. प्रत्यय जोड कर बनता है. यज धातु के तीन अर्थ होते है – १. देव पूजा – आस- पास के सभी भूतों (पदार्थों) का जतन करना और यथायोग्य उपयोग लेना, ईश्वर की पूजा, माता-पिता का सम्मान, पर्यावरण को साफ़ रखना इत्यादि इस के कुछ उदाहरण हैं. २. दान. ३. संगतिकरण (एकता). वेदों के अनुसार इन में मनुष्यों के सभी कर्तव्य आ जाते हैं. इसलिए सिर्फ वेद ही नहीं बल्कि प्राचीन सारे भारतीय ग्रन्थ यज्ञ की महिमा गाते हैं.
मुख्य बात यह है कि यज्ञ में पशु हिंसा का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता. वैदिक कोष- निरुक्त २.७ यज्ञ को अध्वरकहता है अर्थात हिंसा से रहित (ध्वर=हिंसा). पशु हिंसा ही क्यायज्ञ में तो शरीरमनवाणी से भी की जाने वाली किसी हिंसा के लिए स्थान नहीं है. वेदों के अनेक मन्त्र यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग करते हैं. उदा. ऋग्वेद – १.१.४, १.१.८, १.१४.२१, १.१२८.४, १.१९.१, अथर्ववेद- ४.२४.३, १८.२.२, १.४.२, ५.१२.२, १९.४२.४. यजुर्वेद के लगभग ४३ मन्त्रों में यज्ञ के लिए अध्वर शब्द आया है. यजुर्वेद ३६.१८ तो कहता है कि ” मैं सभी प्राणियों- सर्वाणि भूतानि (केवल मनुष्यों को नहीं बल्कि जीव मात्र) को मित्र की दृष्टि से देखूं.” इस से पता चलता है कि वेद कहीं भी पशु हिंसा का समर्थन नहीं करता बल्कि उसका निषेध करता है.
भारतवर्ष के मध्य काल में वैदिक मूल्यों का पतन होने के कारण पशु हिंसा चला दी गई. इस का दोष वेदों को नहीं दिया जा सकता. जैसे, आज कई फ़िल्मी सितारे और मॉडल्स मुस्लिम हैं जो फूहड़ता और अश्लीलता परोसते हैं – इस से कुरान अश्लीलता की समर्थक कही जाएगी? इसी तरह, ईसाई देशों में विवाह पूर्व सम्बन्ध और व्याभिचार का बोलबाला है – तो बाइबिल को इस का आधार कहा जायेगा? हमारी चुनौती है उन सब को – जो यज्ञों में पशु बलि बताते हैं कि वे इस का एक भी प्रमाण वेदों से निकाल कर दिखाएँ.
आरोप  : यदि ऐसा ही है तो वेदों में आए – अश्वमेधनरमेधअजमेधगोमेध क्या हैं ? ‘मेध‘ का मतलब है - ‘मारना‘, यहाँ तक कि वेद तो नरमेध की बात भी करते हैं?
उत्तर: इस लेख के प्रथम भाग में हम चर्चा कर चुके हैं कि ‘ मेध’ शब्द का अर्थ –  ’ हिंसा’ ही नहीं है. ‘मेध’ शब्द- बुद्धि पूर्वक कार्य करने को प्रकट करता है. मेध- ‘ मेधृ – सं – ग – मे’ से बना है. इसलिए, इस का अर्थ –  मिलाप करना, सशक्त करना या पोषित करना भी है. (देखें – धातु पाठ)
जब यज्ञ को अध्वर अर्थात हिंसा रहित‘ कहा गया हैतो उस के सन्दर्भ में ‘ मेध‘ का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाये?बुद्धिमान व्यक्ति मेधावी‘ कहे जाते हैं और इसी तरहलड़कियों का नाम मेधासुमेधा इत्यादि रखा जाता है. तो येनाम क्या उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते हैं या बुद्धिमान होने के कारण ?
शतपथ १३.१.६.३ और १३.२.२.३ स्पष्ट कहता है कि – राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किये जाने वाले कार्य ‘अश्वमेध’ हैं. शिवाजी, राणा प्रताप, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक, चन्द्र शेखर आजाद, भगत सिंह आदि हमारे महान देश भक्त, क्रांतिकारी वीरों ने राष्ट्र रक्षा के लिए अपने जीवन आहूत करके अश्वमेध यज्ञ ही किया था.
अन्न को दूषित होने से बचानाअपनी इन्द्रियों को वश में रखनासूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेनाधरती को पवित्र या साफ़ रखना -गोमेध‘ यज्ञ है. ‘ गो’ शब्द का एक अर्थ – ‘ पृथ्वी’  भी है. पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ है. (देखें - निघण्टू १.१, शतपथ १३.१५.३)
मनुष्य की मृत्यु के बादउसके शरीर का वैदिक रीति से दाह संस्कार करना - नरमेध यज्ञ है. मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना भी नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है.
अज‘ कहते हैं – बीज या अनाज या धान्य को. इसलिएकृषि की पैदावार बढ़ाना - अजमेध. सीमित अर्थों में – अग्निहोत्र में धान्य से आहुति देना. (देखें-महाभारत शांतिपर्व ३३७.४-५)
विष्णु शर्मा, सुप्रसिद्ध पचतंत्र (काकोलूकीयम्) में कहते हैं कि – जो लोग यज्ञ में हिंसा करते हैं, वे मूर्ख हैं. क्योंकि वे वेद के वास्तविक अर्थ को नहीं समझते. यदि पशुओ को मार कर स्वर्ग में जा सकते हैंतो फ़िर नरक में जाने का मार्ग कौन-सा है? महाभारत शांतिपर्व (२६३.६२६५.९) के अनुसार – यज्ञ में शराबमछलीमांस को चलाने वाले लोग धूर्त,नास्तिक और शास्त्र ज्ञान से रहित हैं. 
आरोप ३  : यजुर्वेद मन्त्र २४.२९ – ‘ हस्तिन आलम्भते ‘ – हाथियों को मारने के लिए कहता है?
उत्तर: ’लभ्’ धातु से बनने वाला आलम्भ मारना अर्थ नहीं रखता. लभ् = अर्जित करना या पाना. हालाँकि ‘ हस्तिन’ शब्द का ‘हाथी’ से आलावा और गहन अर्थ भी निकलता है, तब भी यदि हम इस मंत्र में ‘हाथी’ अर्थ लें, तो इससे यही पता चलता है कि, राजा को अपने राज्य के विकास हेतु हाथिओं को प्राप्त करना चाहिए या अर्जित करना चाहिए. भला इसमें हिंसा कहाँ है?
आलम्भ‘ शब्द अनेकों स्थानों पर अर्जित करने या प्राप्त करने के लिए आया है. उदा. मनुस्मृति ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों को पाने का निषेध करते हुए कहती है: वर्जयेत स्त्रीनाम आलम्भं‘. अतः आलम्भते का अर्थ मारना‘ पूर्णत: गलत है. जिन लोगों की जीभ को मांस खाने की लत पड़ गई है उन्हें पशुओं का उपयोग – ‘खाना’ ही समझ में आता है और इसलिए वेद मन्त्रों में ‘आलम्भते’ मतलब मारना, उन्होंने अपने मन से गढ़ लिया.
आरोप ४ : ब्राह्मण ग्रंथों और श्रौत सूत्रों में ‘ संज्ञपन ‘ शब्द आया हैजिसका मतलब बलिदान है ?
उत्तर: अथर्ववेद  ६.७४.१-२  कहता है कि हम अपने मन, शरीर और हृदयों का ‘ संज्ञपन ‘ करें. तो क्या इस से यह समझा जाये कि हम स्वयं को मार दें ! संज्ञपन का वास्तविक अर्थ है – ‘मेल करना या पोषण करना’. मन्त्र का अर्थ है – हम अपने मन, शरीर और हृदयों को बलवान बनाएं जिससे वे एक साथ मिलकर काम करें. संज्ञपन का एक अर्थ – ‘जताना ‘ भी होता है.
आरोप ५ : यजुर्वेद २५. ३४-३५ और ऋग्वेद १.१६२.११-१२ में घोड़े की बलि का स्पष्ट वर्णन है –
” अग्नि से पकाएमरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस- रस उठता है वह वह भूमि या घास पर न गिरेवह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो.” ” जो घोड़े को अग्नि में पका हुआ देखते हैं और जो कहते हैं कि इस मरे हुए घोड़े से बड़ी अच्छी गंध आ रही है तथा जो घोड़े के मांस की लालसा करते हैंउनका उद्यम हमें प्राप्त हो.”
उत्तर:  पता चल रहा है कि आपने ग्रिफिथ की नक़ल की है. पहले मन्त्र का घोड़े से कोई वास्ता नहीं है. वहां सिर्फ यह कहा गया है कि ज्वर या बुखार से पीड़ित मनुष्य को वैद्य लोग उपचार प्रदान करें.  दूसरे मन्त्र में ‘वाजिनम्’ को घोड़ा समझा गया है. वाजिनम् का अर्थ है  - शूर \ बलवान \ गतिशील \ तेज. इसीलिए घोड़ा वाजिनम् कहलाता है. इस मन्त्र के अनेक अर्थ हो सकते हैं पर कहीं से भी घोड़े की बलि का अर्थ नहीं निकलता. 
यदि वाजिनम् का अर्थ घोड़ा ही लिया जाये तब भी अर्थ होगा कि – घोड़ों ( वाजिनम् ) को मारने से रोका जाये. इन मन्त्रों के सही अर्थ जानने के लिए कृपया ऋषि दयानंद का भाष्य पढ़ें. साथ ही, पशु हिंसा निषेध और पशु हत्यारे खासकर गाय और घोड़े के हत्यारों के लिए कठोर दंड के मन्त्रों को जानने के लिए प्रथम लेख - वेदों में गोमांस? पढ़ें.
आरोप ६  : वेदों में गोघ्न‘ या गायों के वध के संदर्भ हैं और गाय का मांस परोसने वाले को अतिथिग्वाअतिथिग्ना कहा गया है.आप इन्हें कैसे स्पष्ट करेंगे
उत्तर: लेख के प्रथम भाग में हम पर्याप्त सबूत दे चुके हैं कि वेदों में गाय को अघन्या या अदिती – अर्थात् कभी न मारने योग्य कहा गया है और गोहत्यारे के लिए अत्यंत कठोर दण्ड के विधान को भी दिखा चुके हैं. ’गम्’ धातु का अर्थ है – ‘जाना’. इसलिए गतिशील होने के कारण ग्रहों को भी ‘गो’ कहते हैं. अतिथिग्वा \ अतिथिग्ना का अर्थ अतिथियों की तरफ़ या अतिथियों की सेवा के लिए जाने वाले है.
गोघ्न‘ के अनेक अर्थ होते हैं. यदि गो‘ से मतलब गाय लिया जाए तब भी गो+ हन् ‘ = गाय के पास जानाऐसा अर्थ होगा. हन्‘ धातु का अर्थ -हिंसा के अलावा गति, ज्ञान इत्यादि भी होते हैं. वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुंचने के लिए भी किया जाता है. उदा. अथर्ववेद ‘हन् ‘ का प्रयोग करते हुए पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश देता है. इसलिए, इन दावों में कोई दम नहीं है.
आरोप ७ : वेद जवान गायों को मारने के लिए नहीं कहते पर बूढ़ीबाँझ (‘ वशा ‘) गाय को मारने की आज्ञा देते हैं.इसी तरह, ‘ उक्षा ‘ या बैल को मारने की आज्ञा भी है. 
उत्तर:   इस मनघडंत कहानी के आधुनिक प्रचारक डी.एन झा हैं. वह गौ- मांस भक्षण के अपने दावे को वेदों से दिखाने में सफल न हो सके. क्योंकि वेदों में इस के बिलकुल विपरीत बात ही कही गयी है और गौ हत्या का सख्त निषेध मौजूद है. इसलिए इस के बचाव में उन्होंने लाल बुझक्कड़ी  कल्पना का सहारा लिया.
दरअसल ‘ उक्षा ‘ एक औषधीय पौधा हैजिसे ‘ सोम ‘ भी कहते हैं. यहाँ तक कि मोनिअर विलियम्स भी अपने संस्कृत – इंग्लिश कोष में ‘ उक्षा ‘ का यही अर्थ करते हैं. ’वशा’ का अर्थ ईश्वर की संसार को ‘ वश ‘ में रखने वाली शक्ति है. यदि ‘ वशा ‘ का मतलब बाँझ गाय कर लिया जाए तो कई वेद मन्त्र अपने अर्थ खो देंगे.
उदा. अथर्ववेद १०.१०.४ – यहाँ ‘ वशा ‘ के साथ सहस्र धारा( सहस्रों पदार्थों को धारण करने वाली ) का प्रयोग हुआ है. अन्न, दूध और जल की प्रचुरता दर्शाने वाली सहस्र धारा के साथ एक बाँझ गाय की तुलना कैसे हो सकती है? ऋग्वेद  १०.१९०.२  में ईश्वर की नियामक शक्ति को वशी ‘ कहा गया है और प्रतिदिन दो बार की जाने वाली वैदिक संध्या में इस मन्त्र को बोला जाता है. 
अथर्ववेद २०.१०३.१५ संतान सहित उत्तम पत्नी को ‘ वशा ‘ कहता है. अन्य कुछ मन्त्रों में वशा‘ शब्द उपजाऊ जमीनया औषधीय पौधे के लिए भी आया है. मोनिअर विलियम्स के कोष में भी ‘वशा’ औषधीय पौधे के सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ है.
इन लोगों ने किस आधार पर ‘ वशा ‘ का अर्थ बाँझ‘ किया हैयह समझ से परे है.
आरोप ८ : बृहदारण्यक उपनिषद  ६.४.१८ के अनुसार उत्तम संतान चाहने वाले दंपत्ति को चावल में मांस मिलाकर खाना चाहिएसाथ ही बैल (अर्षभ) और बछड़े (उक्षा) के मांस का सेवन भी करना चाहिए. 
उत्तर:  वेदों से थककर अब उपनिषदों पर आ गए. पर यदि कोई उपनिषदों में गोमांसाहार दिखा भी दे, तब भी इस से वेदों में गोमांस सिद्ध नहीं हो जाता.
१.हिन्दुओं के सभी धार्मिक ग्रन्थ वेदों को ही अपना आदि स्रोत मानते हैं. इसलिए हिन्दू धर्म में वेदों का प्रमाण ही सर्वोच्च है. पूर्व मीमांसा  १.३.३, मनुस्मृति २.१३, १२.९५, जाबालस्मृति, भविष्य पुराण इत्यादि के अनुसार वेद और अन्य ग्रंथों में मतभेद होने पर वेदों को ही सही माना जाए.
२.बृहदारण्यकोपनिषत् पर किया गया यह बेहूदा आरोप दरअसल गलत समझ का नतीजा है.
३.पहले ‘मांसौदनम्’ को लें –
यहाँ इस श्लोक से पूर्व ४ ऐसे श्लोक हैं, जिनमें बच्चों में विविध वैदिक ज्ञान पाने के लिए चावल को विशिष्ट खाद्य पदार्थों के साथ खाने के लिए कहा है. मांसोदनं के अलावा जो अन्य विशिष्ट खाद्य पदार्थ बताये गए हैं वे हैं: क्षीरोदनं (चावल के साथ दूध), दध्योदनं (चावल के साथ दही), चावल के साथ पानी और चावल के साथ तिल (दलहन). ये सब इतर वेदों में निपुणता प्राप्त करने के लिए बताये गए हैं. इस श्लोक में केवल अर्थववेद में निपुणता प्राप्त करने के लिए मांसोदनं (चावल के साथ मांस) का उल्लेख है. यहीं इस सन्दर्भ में असंगति साफ़ दिखाई देती है.
४. सच तो यह है कि वहां शब्द – माषौदनम्‘ है, ’मांसौदनम्‘ नहीं. माष‘ एक तरह की दाल है. इसलिए यहाँ मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता. आयुर्वेद गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए माष‘ सेवन को हितकारी कहता है ( देखें -सुश्रुत संहिता). इससे ये साफ़ है कि बृहदारण्यक भी वैसा ही मानता है जैसा सुश्रुत में है. इन दोनों में केवल माष और मांस का ही फर्क होने का कोई कारण नहीं.
५.फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस तो गूदे‘ ( pulp) को भी कहते हैं सिर्फ गोश्त (meat) को ही नहीं. प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा के ढेरों प्रमाण मिलते हैं – चरक संहिता देखेंवहां शब्द हैं – आम्रमांसं = आम का गूदा, खजूरमांसं = खजूर का गूदा. तैत्तरीय संहिता २.३२.८ – दहीशहद और धान को मांस कहता है.
६. मोनिअर विलियम्स का कोष उक्षा अर्थात सोम और ऋषभ (जिससे अर्षभ शब्द बना) दोनों को औषधीय पौधा बताता है. ऋषभ का वैज्ञानिक नाम Carpopogan pruriens है. चरक संहिता १.४-१३, सुश्रुत संहिता ३.८ और भावप्रकाश पूर्ण खंड भी यही कहते हैं.
७. अर्षभ (ऋषभ) और उक्षा दोनों का अर्थ बैल है और बछड़ा नहीं. तो एक ही बात बताने के लिए पर्यायवाची शब्दों का उपयोग क्यों किया जायेगा?  (यह कहना ऐसा ही है जैसे ये कहना कि, तुम या तो चावल खाओ या भात खाओ). स्पष्ट ही दोनों शब्दों के अर्थ अलग हैं. और क्योंकि अन्य सभी श्लोक जड़ी-बूटी और दलहनों का उल्लेख करते है, ये शब्द भी इसी ओर इंगित करते हैं.
आरोप ९ : महाभारत वन पर्व २०७ में राजा रन्तिदेव के यज्ञों में बड़ी संख्या में गायों के वध का वर्णन आता है.  
उत्तर: हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि वेद और अन्य शास्त्रों में यदि कहीं विरोध हो तो वेद ही प्रामाणिक माने जायेंगे. महाभारत मिलावटों से इतना दूषित हो चुका है कि उसे प्रमाण मानना भी मुश्किल हो गया है. और महाराजा रन्तिदेव के महलों में गोहत्या के झूठे आरोप का खंडन दशकों पहले ही कई विद्वान कर चुके हैं.
१. महाभारत के अनुशासन पर्व ११५ में राजा रन्तिदेव का नाम कभी मांस न खाने वालों राजाओं में है. यदि उनके महल गोमांस से भरे रहते थे तो उनका नाम मांस न खाने वालों में कैसे आया 
२. मांस का मतलब हमेशा मीट या गोश्त ही नहीं होता – यह भी सिद्ध हो चुका है.
३. जिस श्लोक में गोमांस का आरोप लगाया गया है – उस के अनुसार प्रतिदिन २००० गौएँ मारी जाती थी, इस हिसाब से एक वर्ष में ७,२०,००० से भी अधिक गौओं का वध होता था ? क्या ऐसे श्लोक पर यकीन करना बुद्धिसंगत है?
४. महाभारत का शांति पर्व २६२.४७ – गाय या बैल के हत्यारे को महापापी घोषित करता है. एक ही पुस्तक में यह विरोधाभास कैसे?
५.  दरअसल, इन श्लोकों को भ्रष्ट करने का श्रेय राहुल सांकृतायन जैसे महापंडित को है. वे अपनी वेद निंदा के लिए जाने जाते थे. उन्होंने महाभारत द्रोणपर्व ६७ के प्रथम दो श्लोकों से सिर्फ तीन पंक्तियों को ही उद्धृत किया और जानबूझ कर एक पंक्ति छोड़ दी. द्विशतसहस्र का अर्थ उन्होंने दो हजार किया है – जो कि गलत है. इस का सही अर्थ दो सौ हजार होता है. इस से उनके संस्कृत ज्ञान के दर्शन हो जाते हैं. 
इन में से कोई भी पंक्ति गोमांस से सम्बन्ध नहीं रखती और अगर जानबूझ कर छोड़ी गयी पंक्ति भी मिला दें तो अर्थ होगा कि राजा रन्तिदेव के राज्य में उत्तम भोजन पकाने वाले २००,००० रसोइये थे जो प्रतिदिन अतिथियों और विद्वानों को बढ़िया खाना ( चावलदालेंपकवानमिठाई इत्यादि -शाकाहारी पदार्थ ) खिलाते थे. गोमांस परक अर्थ दिखाने के लिए अगले श्लोक के ‘ माष ‘ शब्द को बदल कर ‘ मांस ‘ किया गया है. 
६. महाभारत में ही, इस के विपरीत –  हिंसा और गोमांस का निषेध करने वाले सैंकड़ों श्लोक मौजूद हैं. साथ ही, महाभारत गाय के लाभ और उसके उपकार की अत्यंत प्रशंसा भी करता है.
७. मूर्ख लोगों ने बाध्यते‘ का अर्थ मारना कर दिया – जो कि संस्कृत की किसी पुस्तक या व्याकरण या प्रयोग के अनुसार नहीं है. बाध्यते‘ का अर्थ है – नियंत्रित करना. 
अतः: राजा रन्तिदेव के यहाँ गायों का वध होता था  – यह कहीं से भी प्रमाणित नहीं होता. अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि विश्व की महानतम पुस्तक वेद और अन्य वैदिक ग्रंथों पर लगाये गए ऐसे कपटपूर्ण आरोपों में अपनी मनमानी थोपने में नाकाम रहे इन बुद्धि भ्रष्ट लोगों की खिसियाहट साफ़ झलकती है.
ईश्वर सबको सद् बुद्धि प्रदान करे ताकि हम सब मिलकर वेदों की आज्ञा पर चलें और संसार को सुन्दर बनाएं. 
५. अग्निवीर ईश्वर की सच्ची उपासना करने, आध्यात्मिक उन्नति करने, और जीवन में यथार्थ सुख और आनंद प्राप्त करने के लिए अष्टांग योग में विश्वास रखता है|
यम - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य
नियम -शौच(शरीर और मन की शुद्धि), संतोष(संतुष्ट और प्रसन्न रहना), तप(स्वयं से अनुशाषित रहना), स्वाध्याय(आत्मचिंतन करना), ईश्वर-प्रणिधान(ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा)
आसन -ईश्वर के ध्यान में लंबे समय तक शांत और स्थिर बैठना
प्राणायाम – आसन में बैठने के बाद श्वास लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण करना
प्रत्याहारमन को बाहरी अशांति से अलग कर इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
धारणा – मन को हदय या मस्तक जैसे किसी स्थान पर स्थिर कर ईश्वर का ध्यान करना
ध्यान  - कोई एक स्थान पर मन को स्थिर करने के बाद वेद मंत्र या अन्य शब्दों के माध्यम से इश्वर का अनुभव करने के लिए इश्वर के गुण-कर्म स्वभाव का निरंतर चिंतन करना
समाधि – ईश्वर का ध्यान धरे रहने से जब इश्वर की अनुभूति होती है, ऐसी अवस्था
६. अग्निवीर विकासमूलक और प्रेम भरे अभिगम में विश्वास रखता है, और मानता है कि द्वेषपूर्ण अभिगम अपनाने से द्वेष का ही सामना करना पड़ता है| इसलिए अग्निवीर का अभिगम सदा से ही प्रामाणिक तरीके से बौद्धिक और भावात्मक जागरूकता फ़ैलाना है|
७. अग्निवीर जन्म पर आधारित जाति-व्यवस्था का सख्त विरोधी है| अग्निवीर जाति-व्यवस्था को समर्थन देने वाले सभी लोगों का भी सख्त विरोधी है| अग्निवीर मानता है कि जो लोग जाति-व्यवस्था की आड़ में रहकर सामाजिक और राजनैतिक हकों की समानता का लाभ कुछ ही ‘उच्च’ वर्ग के लोगों के लिए सीमित कर देना चाहते है, वो सभी लोग, सभ्य समाज और मानवता के शत्रु हैं| अग्निवीर उन सभी लोगों के साथ साथ इस शर्मनाक जाति-व्यवस्था को समर्थन देने वाले सभी गलत ग्रंथो का भी अस्वीकार करता है|
८. अग्निवीर उन सभी विकृत लोगों और उनके विकृत ग्रंथो का सख्त विरोधी है जो यह मानते है कि स्त्रियों के अधिकार पुरुषों के अधिकारों की तुलना में निम्न और गौण होने चाहिए| वेदों में स्त्रियों को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है| और जो लोग यह बात को नहीं मानते वो सभी मानवता के सबसे बड़े शत्रु है|
९. अग्निवीर – ‘मातृवत परदारेषु’ – पत्नी के सिवाय सभी स्त्री माता समान है – सिद्धांत में दृढ़ विश्वास रखता है| अग्निवीर संप्रदाय, जाति, समाज या दूसरी कोई मानव निर्मित हदों को ध्यान में न लेते हुए, उन सभी लोगों को अपराधी ठहरता है जो ‘मातृवत परदारेषु’ के सिद्धांत को नहीं मानते| अग्निवीर आज के ऐसे सभी विज्ञापनों, व्यवसायों, फिल्मों, खेलों और अपराधियों के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठित गुटों का भी विरोध करता है, जो स्त्री को केवल मनोरंजन और वासना की वस्तु समझते हैं| अग्निवीर इन गुन्हेगारों के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठित गुटों को समाज में फैला हुआ रोग मानता है|
वेद कहते है कि स्त्रियों का शोषण कर के धन कमाने वाले लोगों को सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए| हम स्त्रियों को बुरखे में कैद रखने की प्रथा का भी विरोध करते है| इसके साथ साथ मनोरंजन के नाम पर माता समान स्त्री के व्यापारिक शोषण का भी सख्त विरोध करते हैं|
१०. अग्निवीर ग्रिफिथ और मेक्स मुलर द्वारा किये हुए वेदों के गलत अनुवादों को नहीं मानता| वेदों को समझने के लिए हम अपनी वेबसाईट के डाउनलोड सेक्शन में उपयोगी पुस्तकों का संग्रह करने का प्रयत्न कर रहे है| लेकिन हम ये बात स्पष्ट कर देना चाहते है कि केवल आधुनिक भाषा के प्रयोग से ही वेदों का अर्थघटन संभव नहीं| वैदिक मंत्र सूत्रों के समान होते है| और हर एक मंत्र में गहरा सार छिपा हुआ होता है| इसलिए वैदिक मंत्रो को समझने के लिए गहन अंत:अवलोकन, थोडा संस्कृत भाषा का ज्ञान, और मंत्रो की अनुभूति करने की आवश्यकता होती है| वैदिक मंत्रो को रटने जैसे अन्य कोई यांत्रिक तरीके से उसका अर्थघटन संभव नहीं| वेदों में ना ही कोई इतिहास है और ना ही कोई खास समय पर घटी हुई घटनाओं का वर्णन| वेदों में केवल मूल ज्ञान और सिद्धांतों का समावेश है|
११. कई लोगों का मानना है के अग्निवीर भी आर्य समाज जैसी ही कोई एक संस्था है| पर यह सत्य नहीं है| आज के समय के आर्य समाज के नेताओं के गलत मार्ग अपनाने के कारण आज “आर्य समाज” शब्द अपना मूल अर्थ खो चुका है| पर दयानंद सरस्वती, जो हमारे आदर्श हैं, द्वारा विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किए गए आर्य समाज के मूल लक्ष्य के साथ हम एकमत है| इसलिए अगर आप केवल आर्य समाज के सही अर्थ और मूल लक्ष्य को ध्यान में रख कर हमें देखतें है तो हाँ हम “आर्य समाजी” हैं| पर अगर आप हमें आर्य समाज जैसी कोई संस्था के रूप में देखते हैं तो हम “आर्य समाजी” नहीं हैं| इसलिए इस विरोधाभास से दूर रहने के लिए हम “आर्य”, “वैदिक” या फिर “अग्निवीर” के नाम से पहचाने जाना ज्यादा पसंद करते हैं|
१२. अग्निवीर संकुचित मनोवृत्ति में विश्वास नहीं रखता| हम ऐसा दावा कभी नहीं करते कि हमारे वचन ही ईश्वर के अंतिम वचन हैं| इसलिए हम खुले मन से सभी बुद्धिजीवीयों को मुक्त रूप से अपने विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित करते हैं| परन्तु हम जन्म पर आधारित जाति-व्यवस्था, स्त्री हीनता का समर्थन और अपमानजनक टिप्पणियों, इन तीन विषयों पर चर्चा कर समय की बर्बादी करना नहीं चाहते|
१३. आलोचना का अर्थ द्वेष या तिरस्कार नहीं है| हम थोड़े बहुत मतभेदों के कारण अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ वाद-विवाद करते रहते हैं| और यह स्वाभाविक भी है| पर उसका अर्थ ये नहीं है कि हम अपने परिवारजनों के साथ द्वेषभाव या बैर रखते है| ठीक उसी तरह, आज हमारे पास बड़ी मात्रा में ऐसे लेखों का संग्रह है जो आज की प्रचलित मान्यताओं पर कई सवाल उठाते है| पर हमारी लोगों से विनती है कि ऐसे लेख लिखने के पीछे हमारा उद्देश्य द्वेष या तिरस्कार है ऐसा न मानें|
१४. हां, हम सुधार और परिवर्तन के मार्ग पर हैं| हम इसे “शुद्धि आंदोलन” कहते है| हम सभी लोगों से वैदिक धर्म का स्वीकार कर अपने जीवन में उसका आचरण करने का वचन माँगते है| हम वैदिक धर्म का आचरण करते है, और आगे भी अधिक एकाग्रता और दृढ़ मन से करेंगे| वैदिक धर्म का स्वीकार करने में जाति, संप्रदाय या लिंग का कोई बंधन नहीं है| हम हिंदू, मुस्लिम या फ़िर ईसाई धर्मो को मानने वाले सभी लोगों को, मानवजाति के कल्याण के लिए और स्वयं को शांति, एकता, चरित्र और कर्त्तव्य पालन का आदर्श बनाने के लिए वैदिक धर्म स्वीकार करने को आमंत्रित करते हैं| यह प्रक्रिया असीमित सफलता, प्रतिभा, सुख, जोश, उत्साह, समृद्धि और जीवन के लक्ष्य का द्वार खोलेंगी|
१५. अग्निवीर ना ही कोई एक व्यक्ति है या ना ही कोई व्यक्तियों का समुदाय| अग्निवीर एक विचारधारा है| हम बार-बार “मैं” और “हम” को मिलाते रहते है| क्योंकि हम विचारधाराओं के मेल में विश्वास रखते हैं| “मैं” और “हम” एक ही हैं, उनमें केवल शाब्दिक भिन्नता है| अगर आप हमारे स्वप्न और लक्ष्य के साथ सहमत हैं, तो आप भी हमारे लिए अग्निवीर ही हैं|
हमारी विनती है कि आप अग्निवीर के विषयों को उसके पूरे सन्दर्भ में देखें| आप हम से थोड़े बहुत या पूर्ण रूप से सहमत या असहमत हो सकते हैं| पर केवल इस कारण से बौद्धिक मतभेदों को भावनाओं के मतभेदों में परिवर्तित न होने दें| समग्र मानवजाति हमारे लिए एक परिवार समान है|

हम कभी भी एक दूसरे के प्रति द्वेष न रखें|
हम कभी भी एक दूसरे का बुरा न चाहें|
हम कभी भी एक दूसरे की निंदा न करे और एक दूसरे पर दोष न लगाएं|
हम एक दूसरे से भिन्न होकर भी एक दूसरे के कल्याण की ही कामना करें|
हम परिपक्व बन के बिना शत्रुता के अपने आपको अभिव्यक्त कर सकें|
हम एक परिवार की ही तरह मिलजुल कर रहें और उसका आनंद उठाएं|
जैसे गाय अपने बछड़े को प्रेम करती है ठीक उसी प्रकार हम भी एक दूसरे से प्रेम करते रहें|
शांति, सहनशीलता, सत्य और परस्पर सहयोग हमारे शस्त्र बनें|
सर्वथा शांति की स्थापना हो|

हवन की महिमा

Krishna performing Agnihotra







हवन / यज्ञ/ अग्निहोत्र मनुष्यों के साथ सदा से चला आया है। हिन्दू धर्म में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान यह हवन आज प्रायः एक आम आदमी से दूर है। दुर्भाग्य से इसे केवल कुछ वर्ग, जाति और धर्म तक सीमित कर दिया गया है। कोई यज्ञ पर प्रश्न कर रहा है तो कोई मजाक। इस लेख का उद्देश्य जनमानस को यह याद दिलाना है कि हवन क्यों इतना पवित्र है, क्यों यज्ञ करना न सिर्फ हर इंसान का अधिकार है बल्कि कर्त्तव्य भी है. यह लेख किसी विद्वान का नहीं, किसी सन्यासी का नहीं, यह लेख १०० करोड़ हिंदुओं ही नहीं बल्कि ७ अरब मनुष्यों के प्रतिनिधि एक साधारण से इंसान का है जिसमें हर नेक इंसान अपनी छवि देख सकता है. यह लेख आप ही के जैसे एक इंसान के हृदय की आवाज है जिसे आप भी अपने हृदय में महसूस कर सकेंगे..
हवन- मेरी आस्था
हिंदू धर्म में सर्वोपरि पूजनीय वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ/हवन की क्या महिमा है, उसकी कुछ झलक इन मन्त्रों में मिलती है-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्. होतारं रत्नधातमम् [ ऋग्वेद १/१/१/]
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैः बोधयतातिथिं. आस्मिन् हव्या जुहोतन. [यजुर्वेद 3/1]
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे. [यजुर्वेद 22/17]
सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनस्य दाता. [अथर्ववेद 19/7/3]
प्रातः प्रातः गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनस्य दाता. [अथर्ववेद 19/7/4]
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः [यजुर्वेद 31/9]
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान [यजुर्वेद 19/58] 
यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म [शतपथ ब्राह्मण 1/7/1/5]
यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म [तैत्तिरीय 3/2/1/4]
यज्ञो अपि तस्यै जनतायै कल्पतेयत्रैवं विद्वान होता भवति [ऐतरेय ब्राह्मण १/२/१]       
यदैवतः स यज्ञो वा यज्याङ्गं वा.. [निरुक्त ७/४]
इन मन्त्रों में निहित अर्थ और प्रार्थनाएं इस लेख के अंत में दिए जायेंगे जिन्हें पढकर कोई भी व्यक्ति खुद हवन करके अपना और औरों का भला कर सकता है. पर इन मन्त्रों का निचोड़ यह है कि ईश्वर मनुष्यों को आदेश करता है कि हवन/यज्ञ संसार का सर्वोत्तम कर्म है, पवित्र कर्म है जिसके करने से सुख ही सुख बरसता है.
यही नहीं, भगवान श्रीराम को रामायण में स्थान स्थान पर ‘यज्ञ करने वाला’ कहा गया है. महाभारत में श्रीकृष्ण सब कुछ छोड़ सकते हैं पर हवन नहीं छोड़ सकते. हस्तिनापुर जाने के लिए अपने रथ पर निकल पड़ते हैं, रास्ते में शाम होती है तो रथ रोक कर हवन करते हैं. अगले दिन कौरवों की राजसभा में हुंकार भरने से पहले अपनी कुटी में हवन करते हैं. अभिमन्यु के बलिदान जैसी भीषण घटना होने पर भी सबको साथ लेकर पहले यज्ञ करते हैं. श्रीकृष्ण के जीवन का एक एक क्षण जैसे आने वाले युगों को यह सन्देश दे रहा था कि चाहे कुछ हो जाए, यज्ञ करना कभी न छोड़ना.
जिस कर्म को भगवान स्वयं श्रेष्ठतम कर्म कहकर करने का आदेश दें, वो कर्म कर्म नहीं धर्म है. उसका न करना अधर्म है.
हवन- मेरा जीवन   
मेरा जन्म हुआ तो हवन हुआ. पहली बार मेरे केश कटे तो हवन हुआ. मेरा नामकरण हुआ तो हवन हुआ. जन्मदिन पर हवन हुआ, गृह प्रवेश पर हवन हुआ, मेरे व्यवसाय का आरम्भ हुआ तो हवन हुआ, मेरी शादी हुई तो हवन हुआ, बच्चे हुए तो हवन हुआ, संकट आया तो हवन हुआ, खुशियाँ आईं तो हवन हुआ. एक तरह से देखूं तो हर बड़ा काम करने से पहले हवन हुआ. किस लिए? क्योंकि मेरी एक आस्था है कि हवन कर लूँगा तो भगवान साथ होंगे. मैं कहीं भी रहूँगा, भगवान साथ होंगे. कितनी भी कठिन परिस्थिति हों, भगवान मुझे हारने नहीं देंगे. हवन कुंड में डाली गयी एक एक आहुति मेरे जीवन रूपी अग्नि को और विस्तार देगी, उसे ऊंचा उठाएगी. इस जीवन की अग्नि में सारे पाप जलकर स्वाहा होंगे और मेरे सत्कर्मों की सुगंधि सब दिशाओं में फैलेगी. मैं हार और विफलताओं के सारे बीज इस हवन कुंड की अग्नि में जलाकर भस्म कर डालता हूँ ताकि जीत और सफलता मेरे जीवन के हिस्से हों. इस विश्वास के साथ हवन मेरे जीवन के हर काम में साथ होता है.
हवन- मेरी मुक्ति     
हवन कुंड की आग, उसमें स्वाहा होती आहुतियाँ और आहुति से और प्रचंड होने वाली अग्नि. जीवन का तेज, उसमें डाली गयीं शुभ कर्मों की आहुतियाँ और उनसे और अधिक चमकता जीवन! क्या समानता है! हवन क्या है? अपने जीवन को उजले कर्मों से और चमकाने का संकल्प! अपने सब पाप, छल, विफलता, रोग, झूठ, दुर्भाग्य आदि को इस दिव्य अग्नि में जला डालने का संकल्प! हर नए दिन में एक नयी उड़ान भरने का संकल्प, हर नयी रात में नए सपने देखने का संकल्प! उस ईश्वर रूपी अग्नि में खुद को आहुति बनाके उसका हो जाने का संकल्प, उस दिव्य लौ में अपनी लौ लगाने का संकल्प और इस संसार के दुखों से छूट कर अग्नि के समान ऊपर उठ मुक्त होने का संकल्प! हवन मेरी सफलता का आर्ग है. हवन मेरी मुक्ति का मार्ग है, ईश्वर से मिलाने का मार्ग है. मेरे इस मार्ग को कोई रोक नहीं सकता.
हवन- मेरा भाग्य     
लोग अशुभ से डरते हैं. किसी पर साया है तो किसी पर भूत प्रेत. किसी पर किसी ने जादू कर दिया है तो किसी के ग्रह खराब हैं. किसी का भाग्य साथ नहीं देता तो कोई असफलताओं का मारा है. क्यों? क्योंकि जीवन में संकल्प नहीं है. हवन कुंड के सामने बैठ कर उसकी अग्नि में आहुति डालते हुए इदं न मम कहकर एक बार अपने सब अच्छे बुरे कर्मों को उस ईश्वर को समर्पित कर दो. अपनी जीत हार उस ईश्वर के पल्ले बाँध दो. एक बार पवित्र अग्नि के सामने अपने संकल्प की घोषणा कर दो. एक बार कह दो कि अब हार भी उसकी और जीत भी उसकी, मैंने तो अपना सब उसे सौंप दिया. तुम्हारी हर हार जीत में न बदल जाए तो कहना. हर सुबह हवन की अग्नि में इदं न मम कहकर अपने काम शुरू करना और फिर अगर तुम्हे दुःख हो तो कहना. जिस घर में हवन की अग्नि हर दिन प्रज्ज्वलित होती है वहाँ अशुभ और हार के अँधेरे कभी नहीं टिकते. जिस घर में पवित्र अग्नि विराजमान हो उस घर में विनाश/अनिष्ट कभी नहीं हो सकता.
हवन- मेरा स्वास्थ्य   
आस्था और भक्ति के प्रतीक हवन को करने के विचार मन में आते ही आत्मा में उमड़ने वाला ईश्वर प्रेम वैसा ही है जैसे एक माँ के लिए उसके गर्भस्थ अजन्मे बच्चे के प्रति भाव! न जिसको कभी देखा न सुना, तो भी उसके साथ एक कभी न टूटने वाला रिश्ता बन गया है, यही सोच सोच कर मानसिक आनंद की जो अवस्था एक माँ की होती है वही अवस्था एक भक्त की होती है. इस हवन के माध्यम से वह अपने अजन्मे अदृश्य ईश्वर के प्रति भाव पैदा करता है और उस अवस्था में मानसिक आनंद के चरम को पहुँचता है. इस चरम आनंद के फलस्वरूप मन विकार मुक्त हो जाता है. मस्तिष्क और शरीर में श्रेष्ठ रसों (होर्मोंस) का स्राव होता है जो पुराने रोगों का निदान करता है और नए रोगों को आने नहीं देता. हवन करने वाले के मानसिक रोग दस पांच दिनों से ज्यादा नहीं टिक सकते.
हवन में डाली जाने वाली सामग्री (ध्यान रहे, यह सामग्री आयुर्वेद के अनुसार औषधि आदि गुणों से युक्त जड़ी बूटियों से बनी हो) अग्नि में पड़कर सर्वत्र व्याप्त हो जाती है. घर के हर कोने में फ़ैल कर रोग के कीटाणुओं का विनाश करती है. वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि हवन से निकलने वाला धुआँ हवा से फैलने वाली बीमारियों के कारक इन्फेक्शन करने वाले बैक्टीरिया (विषाणुको नष्ट कर देता हैअधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर जाइए-http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2009-08-17/health/28188655_1_medicinal-herbs-havan-nbri
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार दुनिया भर में साल भर में होने वाली ५७ मिलियन मौत में से अकेली १५ मिलियन (२५% से ज्यादा) मौत इन्ही इन्फेक्शन फैलाने वाले विषाणुओं से होती हैं! हवन करने से केवल ये बीमारियाँ ही नहीं, और भी बहुत सी बीमारी खत्म होती हैं, जैसे-
१. सर्दी/जुकाम/नजला
२. हर तरह का बुखार
३. मधुमेह (डायबिटीज/शुगर)
४. टीबी (क्षय रोग)
५. हर तरह का सिर दर्द
६. कमजोर हड्डियां
७. निम्न/उच्च रक्तचाप
८. अवसाद (डिप्रेशन)
इन रोगों के साथ साथ विषम रोगों में भी हवन अद्वितीय है, जैसे
९. मूत्र संबंधी रोग
१०. श्वास/खाद्य नली संबंधी रोग
११. स्प्लेनिक अब्सेस
१२. यकृत संबंधी रोग
१३. श्वेत रक्त कोशिका कैंसर
१४. Infections by Enterobacter Aerogenes
१५. Nosocomial Infections
१६. Extrinsic Allergic Alveolitis
१७. nosocomial non-life-threatening infections
और यह सूची अंतहीन है! सौ से भी ज्यादा आम और खास रोग यज्ञ थैरेपी से ठीक होते हैं! सबसे बढ़कर हवन से शरीर, मन, वातावरण, परिस्थितियों और भाग्य पर अद्भुत प्रभाव होता है. घर परिवार, बच्चे बड़े सबके उत्तम स्वास्थ्य, आरोग्य और भाग्य के लिए यज्ञ से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता! दिन अगर यज्ञ से शुरू हो तो कुछ अशुभ हो नहीं सकता, कोई रोग नहीं हो सकता.
हवन- मेरा सबकुछ
यज्ञ/हवन से सम्बंधित कुछ मन्त्रों के भाव सरल शब्दों में कुछ ऐसे हैं
- इस सृष्टि को रच कर जैसे ईश्वर हवन कर रहा है वैसे मैं भी करता हूँ.
- यह यज्ञ धनों का देने वाला है, इसे प्रतिदिन भक्ति से करो, उन्नति करो.
- हर दिन इस पवित्र अग्नि का आधान मेरे संकल्प को बढाता है.
- मैं इस हवन कुंड की अग्नि में अपने पाप और दुःख फूंक डालता हूँ.
- इस अग्नि की ज्वाला के समान सदा ऊपर को उठता हूँ.
- इस अग्नि के समान स्वतन्त्र विचरता हूँ, कोई मुझे बाँध नहीं सकता.
- अग्नि के तेज से मेरा मुखमंडल चमक उठा है, यह दिव्य तेज है.
- हवन कुंड की यह अग्नि मेरी रक्षा करती है.
- यज्ञ की इस अग्नि ने मेरी नसों में जान डाल दी है.
- एक हाथ से यज्ञ करता हूँ, दूसरे से सफलता ग्रहण करता हूँ.
- हवन के ये दिव्य मन्त्र मेरी जीत की घोषणा हैं.
- मेरा जीवन हवन कुंड की अग्नि है, कर्मों की आहुति से इसे और प्रचंड करता हूँ.
- प्रज्ज्वलित हुई हे हवन की अग्नि! तू मोक्ष के मार्ग में पहला पग है.
- यह अग्नि मेरा संकल्प है. हार और दुर्भाग्य इस हवन कुंड में राख बने पड़े हैं.
- हे सर्वत्र फैलती हवन की अग्नि! मेरी प्रसिद्धि का समाचार जन जन तक पहुँचा दे!
- इस हवन की अग्नि को मैंने हृदय में धारण किया है, अब कोई अँधेरा नहीं.
- यज्ञ और अशुभ वैसे ही हैं जैसे प्रकाश और अँधेरा. दोनों एक साथ नहीं रह सकते.
- भाग्य कर्म से बनते हैं और कर्म यज्ञ से. यज्ञ कर और भाग्य चमका ले!
- इस यज्ञ की अग्नि की रगड़ से बुद्धियाँ प्रज्ज्वलित हो उठती हैं.
- यह ऊपर को उठती अग्नि मुझे भी उठाती है.
- हे अग्नि! तू मेरे प्रिय जनों की रक्षा कर!
- हे अग्नि! तू मुझे प्रेम करने वाला साथी दे. शुभ गुणों से युक्त संतान दे!
- हे अग्नि! तू समस्त रोगों को जड़ से काट दे!
- अब यह हवन की अग्नि मेरे सीने में धधकती है, यह कभी नहीं बुझ सकती.
- नया दिन, नयी अग्नि और नयी जीत.
हे मानवमात्र! हृदय पर हाथ रखकर कहना, क्या दुनिया में कोई दूसरी चीज इन शब्दों का मुकाबला कर सकती है? इस तरह के न जाने कितने चमत्कारी, रोगनाशक, बलवर्धक और जीत के मन्त्रों से यह हवन की प्रक्रिया भरी पड़ी है. जिंदगी की सब समस्याओं का नाश करने वाली और सुखों का अमृत पिलाने वाली यह हवन क्रिया मेरी संस्कृति का हिस्सा है, धर्म का हिस्सा है, आध्यात्म का हिस्सा है, यह सोच कर गर्व से सीना फूल जाता है. हवन मेरे लिए कोई कर्मकांड नहीं है. यह परमेश्वर का आदेश है, श्रीराम की मर्यादा की धरोहर है. श्रीकृष्ण की बंसी की तान है, रण क्षेत्र में पाञ्चजन्य शंख की गुंजार है, अधर्म पर धर्म की जीत की घोषणा है. हवन मेरी जीत का संकल्प है, मेरी जीत की मुहर है. मैं इसे कभी नहीं छोडूंगा.
अग्निवीर घोषणा करता है कि अब हम हर घर में हवन करेंगे और करवाएंगे. न जाति का बंधन होगा और न मजहब की बेडियाँ. न रंग न नस्ल न स्त्री पुरुष का भेद. अब हर इंसान हवन करेगा, सुखी होगा!
जो कोई भी व्यक्ति- हिन्दू,  मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, यहूदी, नास्तिक या कोई भी, हवन करना चाहता है, संकल्प करना चाहता है, वह यहाँ इस लिंक पर जाकर मंगा सकता है। कोई जाति धर्म- मजहब या लिंग का भेद नहीं है।
na chorahaaryaM 
It cannot be stolen by thieves,
na cha raajahaaryaM 
Nor can it be taken away by kings.
na bhraatR^ibhaajyaM 
It cannot be divided among brothers
na cha bhaarakaari | 
It does not cause a load on your shoulders.
vyaye kR^ite 
If spent..
vardhata eva nityam 
It indeed always keeps growing.
vidyaadhanaM 
The wealth of knowledge..
sarvadhanapradhaanaM || 
Is the most superior wealth of all!

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  • Vedic Reserve (index) of Maharshi Mahesh Yogi University of Management (MUM). As part of his dissertation research, recent Ph.D. grad Peter Freund, the University's videotape librarian, has put online the world's most comprehensive and orderly collection of Vedic Literature written in the Sanskrit Devanagari script.The collection comprises almost 60,000 pages of Vedic texts, including rare, sought-after, or out-of-print publications. Any readers and students? A subsite of Maharshi's students for Sanskrit texts is at http://sanskrit.safire.com.
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