‘वेदों में गोमांस? ‘ प्रथम भाग में हम ने वेदों पर लगाए गए गोमांसाहार और पशुबलि के आरोपों की गहराई से जाँच की और पर्याप्त प्रमाणों से यह बताया कि-
१. वेद पशुओं और निर्दोष प्राणियों की हिंसा के सख्त खिलाफ हैं.
२. वेद में यज्ञ की परिभाषा ही अहिंसा से होने वाला अनुष्ठान है और वैदिक मूल्य पशु बलि के सख्त खिलाफ हैं.
३. गोमांसाहार के विपरीत, वेद गाय की रक्षा करने और उसके हत्यारों को अत्यंत कठोर सज़ा देने के निर्देश देते हैं.
इस लेख के प्रकाशन के बाद वेदों को बदनाम करने की मुहिम पर लगाम लगी है. इसके प्रमाणों के प्रतिवाद में आज तक कोई संतोषकारी जवाब नहीं मिला.फिर भी कुछ लोग छुट- पुट आरोप लगाते रहते हैं. अपने पक्ष में यह लोग अज्ञानी और वेदों के अनुवाद में अक्षम पाश्चात्य लोगों के वैदिक साहित्य के अनुवादों से अपमानजनक और बेहूदे अवतरणों को लेकर प्रस्तुत करते रहते हैं.
यहाँ हम ऐसे ही कुछ आरोपों का जवाब देंगे ताकि आगे भी कोई गुमराह न कर सके. अधिक जानकारी के लिए लेख के प्रथम भाग में दी गयी सन्दर्भों की सूची देखें.
आरोप १ : वेद में यज्ञों का बहुत गुणगान किया गया है. और यज्ञों में पशु बलि दी जाती थी, यह सभी जानते हैं.
उत्तर : यज्ञ शब्द ‘यज’ धातु में ‘ नड्.‘ प्रत्यय जोड कर बनता है. यज धातु के तीन अर्थ होते है – १. देव पूजा – आस- पास के सभी भूतों (पदार्थों) का जतन करना और यथायोग्य उपयोग लेना, ईश्वर की पूजा, माता-पिता का सम्मान, पर्यावरण को साफ़ रखना इत्यादि इस के कुछ उदाहरण हैं. २. दान. ३. संगतिकरण (एकता). वेदों के अनुसार इन में मनुष्यों के सभी कर्तव्य आ जाते हैं. इसलिए सिर्फ वेद ही नहीं बल्कि प्राचीन सारे भारतीय ग्रन्थ यज्ञ की महिमा गाते हैं.
मुख्य बात यह है कि यज्ञ में पशु हिंसा का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता. वैदिक कोष- निरुक्त २.७ यज्ञ को ‘अध्वर‘कहता है अर्थात हिंसा से रहित (ध्वर=हिंसा). पशु हिंसा ही क्या, यज्ञ में तो शरीर, मन, वाणी से भी की जाने वाली किसी हिंसा के लिए स्थान नहीं है. वेदों के अनेक मन्त्र यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग करते हैं. उदा. ऋग्वेद – १.१.४, १.१.८, १.१४.२१, १.१२८.४, १.१९.१, अथर्ववेद- ४.२४.३, १८.२.२, १.४.२, ५.१२.२, १९.४२.४. यजुर्वेद के लगभग ४३ मन्त्रों में यज्ञ के लिए अध्वर शब्द आया है. यजुर्वेद ३६.१८ तो कहता है कि ” मैं सभी प्राणियों- सर्वाणि भूतानि (केवल मनुष्यों को नहीं बल्कि जीव मात्र) को मित्र की दृष्टि से देखूं.” इस से पता चलता है कि वेद कहीं भी पशु हिंसा का समर्थन नहीं करता बल्कि उसका निषेध करता है.
भारतवर्ष के मध्य काल में वैदिक मूल्यों का पतन होने के कारण पशु हिंसा चला दी गई. इस का दोष वेदों को नहीं दिया जा सकता. जैसे, आज कई फ़िल्मी सितारे और मॉडल्स मुस्लिम हैं जो फूहड़ता और अश्लीलता परोसते हैं – इस से कुरान अश्लीलता की समर्थक कही जाएगी? इसी तरह, ईसाई देशों में विवाह पूर्व सम्बन्ध और व्याभिचार का बोलबाला है – तो बाइबिल को इस का आधार कहा जायेगा? हमारी चुनौती है उन सब को – जो यज्ञों में पशु बलि बताते हैं कि वे इस का एक भी प्रमाण वेदों से निकाल कर दिखाएँ.
आरोप २ : यदि ऐसा ही है तो वेदों में आए – अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध क्या हैं ? ‘मेध‘ का मतलब है - ‘मारना‘, यहाँ तक कि वेद तो नरमेध की बात भी करते हैं?
उत्तर: इस लेख के प्रथम भाग में हम चर्चा कर चुके हैं कि ‘ मेध’ शब्द का अर्थ – ’ हिंसा’ ही नहीं है. ‘मेध’ शब्द- बुद्धि पूर्वक कार्य करने को प्रकट करता है. मेध- ‘ मेधृ – सं – ग – मे’ से बना है. इसलिए, इस का अर्थ – मिलाप करना, सशक्त करना या पोषित करना भी है. (देखें – धातु पाठ)
जब यज्ञ को अध्वर अर्थात ‘हिंसा रहित‘ कहा गया है, तो उस के सन्दर्भ में ‘ मेध‘ का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाये?बुद्धिमान व्यक्ति ‘मेधावी‘ कहे जाते हैं और इसी तरह, लड़कियों का नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखा जाता है. तो येनाम क्या उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते हैं या बुद्धिमान होने के कारण ?
शतपथ १३.१.६.३ और १३.२.२.३ स्पष्ट कहता है कि – राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किये जाने वाले कार्य ‘अश्वमेध’ हैं. शिवाजी, राणा प्रताप, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक, चन्द्र शेखर आजाद, भगत सिंह आदि हमारे महान देश भक्त, क्रांतिकारी वीरों ने राष्ट्र रक्षा के लिए अपने जीवन आहूत करके अश्वमेध यज्ञ ही किया था.
अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेना, धरती को पवित्र या साफ़ रखना -‘गोमेध‘ यज्ञ है. ‘ गो’ शब्द का एक अर्थ – ‘ पृथ्वी’ भी है. पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ है. (देखें - निघण्टू १.१, शतपथ १३.१५.३)
मनुष्य की मृत्यु के बाद, उसके शरीर का वैदिक रीति से दाह संस्कार करना - नरमेध यज्ञ है. मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना भी नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है.
‘अज‘ कहते हैं – बीज या अनाज या धान्य को. इसलिए, कृषि की पैदावार बढ़ाना - अजमेध. सीमित अर्थों में – अग्निहोत्र में धान्य से आहुति देना. (देखें-महाभारत शांतिपर्व ३३७.४-५)
विष्णु शर्मा, सुप्रसिद्ध पचतंत्र (काकोलूकीयम्) में कहते हैं कि – जो लोग यज्ञ में हिंसा करते हैं, वे मूर्ख हैं. क्योंकि वे वेद के वास्तविक अर्थ को नहीं समझते. यदि पशुओ को मार कर स्वर्ग में जा सकते हैं, तो फ़िर नरक में जाने का मार्ग कौन-सा है? महाभारत शांतिपर्व (२६३.६, २६५.९) के अनुसार – यज्ञ में शराब, मछली, मांस को चलाने वाले लोग धूर्त,नास्तिक और शास्त्र ज्ञान से रहित हैं.
आरोप ३ : यजुर्वेद मन्त्र २४.२९ – ‘ हस्तिन आलम्भते ‘ – हाथियों को मारने के लिए कहता है?
उत्तर: ’लभ्’ धातु से बनने वाला आलम्भ मारना अर्थ नहीं रखता. लभ् = अर्जित करना या पाना. हालाँकि ‘ हस्तिन’ शब्द का ‘हाथी’ से आलावा और गहन अर्थ भी निकलता है, तब भी यदि हम इस मंत्र में ‘हाथी’ अर्थ लें, तो इससे यही पता चलता है कि, राजा को अपने राज्य के विकास हेतु हाथिओं को प्राप्त करना चाहिए या अर्जित करना चाहिए. भला इसमें हिंसा कहाँ है?
‘आलम्भ‘ शब्द अनेकों स्थानों पर अर्जित करने या प्राप्त करने के लिए आया है. उदा. मनुस्मृति ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों को पाने का निषेध करते हुए कहती है: ‘वर्जयेत स्त्रीनाम आलम्भं‘. अतः आलम्भते का अर्थ ‘मारना‘ पूर्णत: गलत है. जिन लोगों की जीभ को मांस खाने की लत पड़ गई है उन्हें पशुओं का उपयोग – ‘खाना’ ही समझ में आता है और इसलिए वेद मन्त्रों में ‘आलम्भते’ मतलब मारना, उन्होंने अपने मन से गढ़ लिया.
आरोप ४ : ब्राह्मण ग्रंथों और श्रौत सूत्रों में ‘ संज्ञपन ‘ शब्द आया है, जिसका मतलब बलिदान है ?
उत्तर: अथर्ववेद ६.७४.१-२ कहता है कि हम अपने मन, शरीर और हृदयों का ‘ संज्ञपन ‘ करें. तो क्या इस से यह समझा जाये कि हम स्वयं को मार दें ! संज्ञपन का वास्तविक अर्थ है – ‘मेल करना या पोषण करना’. मन्त्र का अर्थ है – हम अपने मन, शरीर और हृदयों को बलवान बनाएं जिससे वे एक साथ मिलकर काम करें. संज्ञपन का एक अर्थ – ‘जताना ‘ भी होता है.
आरोप ५ : यजुर्वेद २५. ३४-३५ और ऋग्वेद १.१६२.११-१२ में घोड़े की बलि का स्पष्ट वर्णन है –
” अग्नि से पकाए, मरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस- रस उठता है वह वह भूमि या घास पर न गिरे, वह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो.” ” जो घोड़े को अग्नि में पका हुआ देखते हैं और जो कहते हैं कि इस मरे हुए घोड़े से बड़ी अच्छी गंध आ रही है तथा जो घोड़े के मांस की लालसा करते हैं, उनका उद्यम हमें प्राप्त हो.”
उत्तर: पता चल रहा है कि आपने ग्रिफिथ की नक़ल की है. पहले मन्त्र का घोड़े से कोई वास्ता नहीं है. वहां सिर्फ यह कहा गया है कि ज्वर या बुखार से पीड़ित मनुष्य को वैद्य लोग उपचार प्रदान करें. दूसरे मन्त्र में ‘वाजिनम्’ को घोड़ा समझा गया है. वाजिनम् का अर्थ है - शूर \ बलवान \ गतिशील \ तेज. इसीलिए घोड़ा वाजिनम् कहलाता है. इस मन्त्र के अनेक अर्थ हो सकते हैं पर कहीं से भी घोड़े की बलि का अर्थ नहीं निकलता.
यदि वाजिनम् का अर्थ घोड़ा ही लिया जाये तब भी अर्थ होगा कि – घोड़ों ( वाजिनम् ) को मारने से रोका जाये. इन मन्त्रों के सही अर्थ जानने के लिए कृपया ऋषि दयानंद का भाष्य पढ़ें. साथ ही, पशु हिंसा निषेध और पशु हत्यारे खासकर गाय और घोड़े के हत्यारों के लिए कठोर दंड के मन्त्रों को जानने के लिए प्रथम लेख - वेदों में गोमांस? पढ़ें.
आरोप ६ : वेदों में ‘गोघ्न‘ या गायों के वध के संदर्भ हैं और गाय का मांस परोसने वाले को अतिथिग्वा\ अतिथिग्ना कहा गया है.आप इन्हें कैसे स्पष्ट करेंगे?
उत्तर: लेख के प्रथम भाग में हम पर्याप्त सबूत दे चुके हैं कि वेदों में गाय को अघन्या या अदिती – अर्थात् कभी न मारने योग्य कहा गया है और गोहत्यारे के लिए अत्यंत कठोर दण्ड के विधान को भी दिखा चुके हैं. ’गम्’ धातु का अर्थ है – ‘जाना’. इसलिए गतिशील होने के कारण ग्रहों को भी ‘गो’ कहते हैं. अतिथिग्वा \ अतिथिग्ना का अर्थ अतिथियों की तरफ़ या अतिथियों की सेवा के लिए जाने वाले है.
‘गोघ्न‘ के अनेक अर्थ होते हैं. यदि ‘गो‘ से मतलब गाय लिया जाए तब भी ‘गो+ हन् ‘ = गाय के पास जाना, ऐसा अर्थ होगा. ‘हन्‘ धातु का अर्थ -हिंसा के अलावा गति, ज्ञान इत्यादि भी होते हैं. वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुंचने के लिए भी किया जाता है. उदा. अथर्ववेद ‘हन् ‘ का प्रयोग करते हुए पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश देता है. इसलिए, इन दावों में कोई दम नहीं है.
आरोप ७ : वेद जवान गायों को मारने के लिए नहीं कहते पर बूढ़ी, बाँझ (‘ वशा ‘) गाय को मारने की आज्ञा देते हैं.इसी तरह, ‘ उक्षा ‘ या बैल को मारने की आज्ञा भी है.
उत्तर: इस मनघडंत कहानी के आधुनिक प्रचारक डी.एन झा हैं. वह गौ- मांस भक्षण के अपने दावे को वेदों से दिखाने में सफल न हो सके. क्योंकि वेदों में इस के बिलकुल विपरीत बात ही कही गयी है और गौ हत्या का सख्त निषेध मौजूद है. इसलिए इस के बचाव में उन्होंने लाल बुझक्कड़ी कल्पना का सहारा लिया.
दरअसल ‘ उक्षा ‘ एक औषधीय पौधा है, जिसे ‘ सोम ‘ भी कहते हैं. यहाँ तक कि मोनिअर विलियम्स भी अपने संस्कृत – इंग्लिश कोष में ‘ उक्षा ‘ का यही अर्थ करते हैं. ’वशा’ का अर्थ ईश्वर की संसार को ‘ वश ‘ में रखने वाली शक्ति है. यदि ‘ वशा ‘ का मतलब बाँझ गाय कर लिया जाए तो कई वेद मन्त्र अपने अर्थ खो देंगे.
उदा. अथर्ववेद १०.१०.४ – यहाँ ‘ वशा ‘ के साथ सहस्र धारा( सहस्रों पदार्थों को धारण करने वाली ) का प्रयोग हुआ है. अन्न, दूध और जल की प्रचुरता दर्शाने वाली सहस्र धारा के साथ एक बाँझ गाय की तुलना कैसे हो सकती है? ऋग्वेद १०.१९०.२ में ईश्वर की नियामक शक्ति को ‘वशी ‘ कहा गया है और प्रतिदिन दो बार की जाने वाली वैदिक संध्या में इस मन्त्र को बोला जाता है.
अथर्ववेद २०.१०३.१५ संतान सहित उत्तम पत्नी को ‘ वशा ‘ कहता है. अन्य कुछ मन्त्रों में ‘वशा‘ शब्द उपजाऊ जमीनया औषधीय पौधे के लिए भी आया है. मोनिअर विलियम्स के कोष में भी ‘वशा’ औषधीय पौधे के सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ है.
इन लोगों ने किस आधार पर ‘ वशा ‘ का अर्थ ‘बाँझ‘ किया है, यह समझ से परे है.
आरोप ८ : बृहदारण्यक उपनिषद ६.४.१८ के अनुसार उत्तम संतान चाहने वाले दंपत्ति को चावल में मांस मिलाकर खाना चाहिए, साथ ही बैल (अर्षभ) और बछड़े (उक्षा) के मांस का सेवन भी करना चाहिए.
उत्तर: वेदों से थककर अब उपनिषदों पर आ गए. पर यदि कोई उपनिषदों में गोमांसाहार दिखा भी दे, तब भी इस से वेदों में गोमांस सिद्ध नहीं हो जाता.
१.हिन्दुओं के सभी धार्मिक ग्रन्थ वेदों को ही अपना आदि स्रोत मानते हैं. इसलिए हिन्दू धर्म में वेदों का प्रमाण ही सर्वोच्च है. पूर्व मीमांसा १.३.३, मनुस्मृति २.१३, १२.९५, जाबालस्मृति, भविष्य पुराण इत्यादि के अनुसार वेद और अन्य ग्रंथों में मतभेद होने पर वेदों को ही सही माना जाए.
२.बृहदारण्यकोपनिषत् पर किया गया यह बेहूदा आरोप दरअसल गलत समझ का नतीजा है.
३.पहले ‘मांसौदनम्’ को लें –
यहाँ इस श्लोक से पूर्व ४ ऐसे श्लोक हैं, जिनमें बच्चों में विविध वैदिक ज्ञान पाने के लिए चावल को विशिष्ट खाद्य पदार्थों के साथ खाने के लिए कहा है. मांसोदनं के अलावा जो अन्य विशिष्ट खाद्य पदार्थ बताये गए हैं वे हैं: क्षीरोदनं (चावल के साथ दूध), दध्योदनं (चावल के साथ दही), चावल के साथ पानी और चावल के साथ तिल (दलहन). ये सब इतर वेदों में निपुणता प्राप्त करने के लिए बताये गए हैं. इस श्लोक में केवल अर्थववेद में निपुणता प्राप्त करने के लिए मांसोदनं (चावल के साथ मांस) का उल्लेख है. यहीं इस सन्दर्भ में असंगति साफ़ दिखाई देती है.
४. सच तो यह है कि वहां शब्द – ‘माषौदनम्‘ है, ’मांसौदनम्‘ नहीं. ‘माष‘ एक तरह की दाल है. इसलिए यहाँ मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता. आयुर्वेद गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए ‘माष‘ सेवन को हितकारी कहता है ( देखें -सुश्रुत संहिता). इससे ये साफ़ है कि बृहदारण्यक भी वैसा ही मानता है जैसा सुश्रुत में है. इन दोनों में केवल माष और मांस का ही फर्क होने का कोई कारण नहीं.
५.फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस तो ‘गूदे‘ ( pulp) को भी कहते हैं सिर्फ गोश्त (meat) को ही नहीं. प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा के ढेरों प्रमाण मिलते हैं – चरक संहिता देखें, वहां शब्द हैं – आम्रमांसं = आम का गूदा, खजूरमांसं = खजूर का गूदा. तैत्तरीय संहिता २.३२.८ – दही, शहद और धान को मांस कहता है.
६. मोनिअर विलियम्स का कोष उक्षा अर्थात सोम और ऋषभ (जिससे अर्षभ शब्द बना) दोनों को औषधीय पौधा बताता है. ऋषभ का वैज्ञानिक नाम Carpopogan pruriens है. चरक संहिता १.४-१३, सुश्रुत संहिता ३.८ और भावप्रकाश पूर्ण खंड भी यही कहते हैं.
७. अर्षभ (ऋषभ) और उक्षा दोनों का अर्थ बैल है और बछड़ा नहीं. तो एक ही बात बताने के लिए पर्यायवाची शब्दों का उपयोग क्यों किया जायेगा? (यह कहना ऐसा ही है जैसे ये कहना कि, तुम या तो चावल खाओ या भात खाओ). स्पष्ट ही दोनों शब्दों के अर्थ अलग हैं. और क्योंकि अन्य सभी श्लोक जड़ी-बूटी और दलहनों का उल्लेख करते है, ये शब्द भी इसी ओर इंगित करते हैं.
आरोप ९ : महाभारत वन पर्व २०७ में राजा रन्तिदेव के यज्ञों में बड़ी संख्या में गायों के वध का वर्णन आता है.
उत्तर: हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि वेद और अन्य शास्त्रों में यदि कहीं विरोध हो तो वेद ही प्रामाणिक माने जायेंगे. महाभारत मिलावटों से इतना दूषित हो चुका है कि उसे प्रमाण मानना भी मुश्किल हो गया है. और महाराजा रन्तिदेव के महलों में गोहत्या के झूठे आरोप का खंडन दशकों पहले ही कई विद्वान कर चुके हैं.
१. महाभारत के अनुशासन पर्व ११५ में राजा रन्तिदेव का नाम कभी मांस न खाने वालों राजाओं में है. यदि उनके महल गोमांस से भरे रहते थे तो उनका नाम मांस न खाने वालों में कैसे आया ?
२. मांस का मतलब हमेशा मीट या गोश्त ही नहीं होता – यह भी सिद्ध हो चुका है.
३. जिस श्लोक में गोमांस का आरोप लगाया गया है – उस के अनुसार प्रतिदिन २००० गौएँ मारी जाती थी, इस हिसाब से एक वर्ष में ७,२०,००० से भी अधिक गौओं का वध होता था ? क्या ऐसे श्लोक पर यकीन करना बुद्धिसंगत है?
४. महाभारत का शांति पर्व २६२.४७ – गाय या बैल के हत्यारे को महापापी घोषित करता है. एक ही पुस्तक में यह विरोधाभास कैसे?
५. दरअसल, इन श्लोकों को भ्रष्ट करने का श्रेय राहुल सांकृतायन जैसे महापंडित को है. वे अपनी वेद निंदा के लिए जाने जाते थे. उन्होंने महाभारत द्रोणपर्व ६७ के प्रथम दो श्लोकों से सिर्फ तीन पंक्तियों को ही उद्धृत किया और जानबूझ कर एक पंक्ति छोड़ दी. द्विशतसहस्र का अर्थ उन्होंने दो हजार किया है – जो कि गलत है. इस का सही अर्थ दो सौ हजार होता है. इस से उनके संस्कृत ज्ञान के दर्शन हो जाते हैं.
इन में से कोई भी पंक्ति गोमांस से सम्बन्ध नहीं रखती और अगर जानबूझ कर छोड़ी गयी पंक्ति भी मिला दें तो अर्थ होगा कि राजा रन्तिदेव के राज्य में उत्तम भोजन पकाने वाले २००,००० रसोइये थे जो प्रतिदिन अतिथियों और विद्वानों को बढ़िया खाना ( चावल, दालें, पकवान, मिठाई इत्यादि -शाकाहारी पदार्थ ) खिलाते थे. गोमांस परक अर्थ दिखाने के लिए अगले श्लोक के ‘ माष ‘ शब्द को बदल कर ‘ मांस ‘ किया गया है.
६. महाभारत में ही, इस के विपरीत – हिंसा और गोमांस का निषेध करने वाले सैंकड़ों श्लोक मौजूद हैं. साथ ही, महाभारत गाय के लाभ और उसके उपकार की अत्यंत प्रशंसा भी करता है.
७. मूर्ख लोगों ने ‘बाध्यते‘ का अर्थ मारना कर दिया – जो कि संस्कृत की किसी पुस्तक या व्याकरण या प्रयोग के अनुसार नहीं है. ‘बाध्यते‘ का अर्थ है – नियंत्रित करना.
अतः: राजा रन्तिदेव के यहाँ गायों का वध होता था – यह कहीं से भी प्रमाणित नहीं होता. अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि विश्व की महानतम पुस्तक वेद और अन्य वैदिक ग्रंथों पर लगाये गए ऐसे कपटपूर्ण आरोपों में अपनी मनमानी थोपने में नाकाम रहे इन बुद्धि भ्रष्ट लोगों की खिसियाहट साफ़ झलकती है.
ईश्वर सबको सद् बुद्धि प्रदान करे ताकि हम सब मिलकर वेदों की आज्ञा पर चलें और संसार को सुन्दर बनाएं.