प्रकृति और पुरूष ।
सांख्य दर्शन की व्याख्या है कि मूल तत्त्व के दो रूप हैं - प्रकृति और पुरूष। पुरूष अर्थात चेतन तत्त्व । चेतना कैसी? निरपेक्ष, उदासीन , निष्क्रिय - सिर्फ़ देखता रहने वाला साक्षी = प्रतिक्रिया विहीन साक्षी ।
किंतु प्रकृति अचेतन है, जड़ है तो भी सक्रिय है । यह सक्रियता कैसी है ? एक अचेतन तत्त्व में सक्रियता कैसे आ सकती है ? यह सक्रियता आती है पुरूष के साहचर्य से , सहवास से। पुरूष का संसर्ग मात्र पाकर प्रकृति चंचल हो उठती है, सक्रिय हो उठती है, जैसे प्रिय के आगमन से कामिनियाँ चंचला हो जाती हैं ।
सांख्य दर्शन का यह रूपक पुरूष वर्चस्व वादी है - यह अच्छा नहीं है किंतु है।
ध्यान देने की बात है कि प्रकृति सब कुछ करती है, यही सब कुछ करती है किंतु उसके कुछ भी करने के लिए पुरूष का सान्निध्य अनिवार्य है। अकेली प्रकृति कुछ नहीं कर सकती । पुरूष वाद ने अपना खेल कर लिया । बच्चा जानेगी स्त्री और वंश चलेगा पुरूष का !
पुरूष निर्लिप्त है , पुरूष को किसी भी तरह की लिप्सा नहीं है । उसे प्रकृति ही भोग के संसार में ले जाती है - ऐसा सांख्य दर्शन मानता है।
सांख्य दर्शन और भी बहुत कुछ कहता है। अपनी धारणा को बनाए रखने के लिए बहुत सारे प्रपंच रचता है।
पुरूष और प्रकृति ।
संसार के दो स्तम्भ है - सुनने में अच्छा लगता है किंतु व्याख्या जब आगे बढती है तो इसमे विद्रूपता और भयानक होकर सामने आती जाती है ।
पारस्परिकता के नाम पर सांख्य दर्शन पक्षपात की राजनीति करता है।
Thursday, 29 July 2010
Aham Brahmasmi
अहम् ब्रह्मास्मि का सरल हिन्दी अनुवाद है कि मैं ब्रह्म हूँ । सुनकर बहुधा लोग ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाया करते हैं। इसका कारण यह है लोग - जड़ बुद्धि व्याख्याकारों के कहे को अपनाते है। किसी भी अभिकथन के अभिप्राय को जानने के लिए आवश्यक है कि उसके पूर्वपक्ष को समझा जाय।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।
Aham Brahmasmi
अहम् ब्रह्मास्मि का सरल हिन्दी अनुवाद है कि मैं ब्रह्म हूँ । सुनकर बहुधा लोग ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाया करते हैं। इसका कारण यह है लोग - जड़ बुद्धि व्याख्याकारों के कहे को अपनाते है। किसी भी अभिकथन के अभिप्राय को जानने के लिए आवश्यक है कि उसके पूर्वपक्ष को समझा जाय।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।
Monday, 26 July 2010
Friday, 23 July 2010
TANTRA
तन्त्र की तीन परम्परायें मानी जाती हैं –
- शैव आगम या शैव तन्त्र,
- वैष्णव संहितायें, तथा
- शाक्त तन्त्र
शैव आगम
शैव आगमों की चार विचारधारायें हैं –
1. शैवसिद्धान्त,
2. तमिल शैव,
3. कश्मीरी शैवदर्शन, तथा
4. वीरशैव या लिंगायत शैव दर्शन
आगमों की भारतीय परम्परा में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन मन्दिरों, प्रतिमाओं, भवनों, एवं धार्मिक-आध्यात्मिक विधियों का निर्धारण इनके द्वारा हुआ है।
शैव सिद्धान्त
प्रचीन तौर पर शैव सिद्धान्त के अन्तर्गत 28 आगम तथा 150 उपागमों को माना गया है।
शैव सिद्धान्त के अनुसार सैध्दान्तिक रूप से शिव ही केवल चेतन तत्त्व हैं तथा प्रकृति जड़ तत्त्व है। शिव का मूलाधार शक्ति ही है। शक्ति के द्वारा ही बन्धन एवं मोक्ष प्राप्त होता है।
कश्मीरी शैवदर्शन
प्रमुख ग्रन्थ शिवसूत्र है। इसमें शिव की प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही ज्ञान प्राप्ति को कहा गया है। जगत् शिव की अभिव्यक्ति है तथा शिव की ही शक्ति से उत्पन्न या संभव है। इस दर्शन को ‘त्रिक’ दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि यह – शिव, शक्ति तथा जीव (पशु) तीनों के अस्तित्व को स्वीकार करता है।
वीरशैव दर्शन
इस दर्शन का महत्पूर्ण ग्रन्थ “वाचनम्” है जिससे अभिप्राय है ‘शिव की उक्ति’।
यह दर्शन पारम्परिक तथा शिव को ही पूर्णतया समस्त कारक, संहारक, सर्जक मानता है। इसमें जातिगत भेदभाव को भी नहीं माना गया है।
इस दर्शन के अन्तर्गत गुरु परम्परा का विशेष महत्व है।
वैष्णव संहिता
वैष्णव संहिता की दो विचारधारायें मिलती हैं – वैखानस संहिता, तथा पंचारात्र संहिता।
वैखानस संहिता – यह वैष्णव परम्परा के वैखानस विचारधारा है। वैखानस परम्परा प्राथमिक तौर पर तपस् एवं साधन परक परम्परा रही है।
पंचरात्र संहिता – पंचरात्र से अभिप्राय है – ‘पंचनिशाओं का तन्त्र’। पंचरात्र परम्परा प्रचीनतौर पर विश्व के उद्भव, सृष्टि रचना आदि के विवेचन को समाहित करती है। इसमें सांख्य तथा योग दर्शनों की मान्यताओं का समावेश दिखायी देता है। वैखानस परम्परा की अपेक्षा पंचरात्र परम्परा अधिक लोकप्रचलन में रही है। इसके 108 ग्रन्थों के होने को कहा गया है। वैष्णव परम्परा में भक्ति वादी विचारधारा के अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त भी समाहित है।
Samadhi
Samadhi
In Nirvikalpa samadhi there is no thought, no idea, nothing whatsoever. All is tranquility, or you can say tranquillity's flood. Here nature's dance comes to an end. The restless activity of human nature cannot play its role. There is no thought, no idea, no form, only the transcendental Silence and boundless Peace, Light and Delight. In this expanse of infinite Peace, Light and Delight, there exist only the seeker and his Beloved Supreme, who have become one.
Then comes a samadhi known as Sahaja samadhi. In this samadhi, after having attained the highest realm ofof seven-hundred miles per hour, but one does not notice any motion at all. In Sahaja samadhi one maintains the highest transcendental consciousness within and, at the same time, throws himself into the world's activities in order to transform humanity and free humanity from ignorance. This samadhi is for those who have reached the Highest and whom the Highest Absolute Supreme wants to manifest Himself in and through. consciousness, one can remain on earth and enter into multifarious activities while maintaining his highest realisation. It is as if one is sitting quietly inside a jet plane which is flying at a speed
श्रेष्ठ आदमी के आचरण का दूसरे लोग अनुकरण करते हैं। इसलिए बड़े और श्रेष्ठ माने जाने वाले लोगों को अपने आचरण और अपनी जीवन शैली के प्रति विशेष रूप से सचेष्ट रहना चाहिए। दूसरे के संस्कारों का निर्माण करने से पहले स्वयं के संस्कारों का निर्माण जरूरी है। स्वयं को संस्कृत बनाकर ही दूसरों का संस्कार निर्माण किया जा सकता है।
संस्कार निर्माण का पहला सूत्र है -स्वार्थ का सीमाकरण। यह नहीं कहा जा सकता कि स्वार्थ को छोड़ दिया जाए। कोई भी व्यक्ति सर्वथा स्वार्थ को छोड़ नहीं सकता। राजनीतिक प्रणालियों में कितने परीक्षण हो गए। साम्यवादी प्रणाली में कम्यूनों का विकास हुआ, किंतु उन्हें लौटना पड़ा। यह समझ में आ गया कि वैयक्तिक स्वार्थ की पूर्ति हुए बिना आदमी में कोई अंत:प्रेरणा नहीं जाग सकती।
हमारी सबसे बड़ी अंत:प्रेरणा है स्वार्थ। वैयक्तिक स्वार्थ होता है, तब आदमी बहुत अच्छा काम करता है, मनोयोग से करता है। जहां समूह के लिए करना पड़ता है, वहां मनोवृत्ति दूसरे प्रकार की बन जाती है। वह सोचता है -सब काम कर रहे हैं, मैं अकेला नहीं करूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा। जहां कम्यून है, समुदायवाद है, वहां प्रेरणा दूसरा काम करती है। इसीलिए प्रजातंत्रीय प्रणाली में जितना विकास हो सका, व्यक्तिगत संपत्ति की स्वतंत्रता में जितना विकास हो सका, उतना नियंत्रित प्रणाली में नहीं हो पाया।
व्यक्तिगत स्वार्थ एक बहुत बड़ी प्रेरणा है। इस सचाई को हम अस्वीकार न करें। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता -अब स्वार्थ को छोड़ कर परमार्थ का जीवन जीएं। यह असंभव बात होगी और कोई मानेगा भी नहीं। इसलिए महत्वपूर्ण और जरूरी यह है कि यदि स्वार्थ को छोड़ न पाएं तो उसका सीमाकरण जरूर करें।
ऐसा स्वार्थ भी नहीं होना चाहिए, जो दूसरे के स्वार्थ में बाधा डाले, कठिनाई पैदा करे। यह है स्वार्थ का सीमाकरण। केवल अपना ही नहीं, दूसरों का हित भी तो सधना चाहिए। जहां इस तरह का संस्कार निर्मित होता है, हमारे व्यवहार की अनेक समस्याएं सुलझ जाती हैं। परिवारों में कलह क्यों होता है? इसीलिए कि जहां देवरानियां-जेठानियां अपने-अपने बच्चे को प्राथमिकता देना शुरू करती हैं। जहां सामुदायिक जीवन है, वहां अपने स्वार्थ को असीम न बनाएं, उसकी एक सीमा रखें कि इससे आगे नहीं बढ़ना है -तो समस्या कभी पैदा नहीं होगी।
संस्कार के निर्माण का दूसरा सूत्र है -उदार दृष्टिकोण। संकीर्ण दृष्टि से देखने वाला अपने आस-पास तक ही देख पाएगा। आदमी को दूर तक की, और आगे-पीछे की बात भी जरूर देखनी चाहिए। बहुत वर्ष पहले हम बीदासर की एक गली से होकर जा रहे थे। एक नोहरा देखा। उसकी जर्जर दीवारें ढह चुकी थीं, किंतु विशाल फाटक और उसमें झूलता बड़ा-सा ताला अभी भी लटक रहा था। आगे तो ताला लगा बड़ा-सा दरवाजा और नोहरे की चारों ओर की दीवारें ध्वस्त। ताले और दरवाजे का मतलब क्या रहा?
दृष्टिकोण संकुचित होगा तो व्यवहार में उलझनें पैदा होंगी। दृष्टिकोण व्यापक और उदार होगा तो व्यापक हितों की ओर ध्यान दिया जाएगा। संघर्ष का कारण ही संकुचित दृष्टिकोण है। संकुचित वृत्ति परिवार की भी समस्या है, समाज की भी समस्या है। बहुत सीमित दृष्टि से बात सोची जाती है इसलिए अनेक समस्याएं उलझ जाती हैं।
तीसरा सूत्र है -हीन भावना और अहंभावना से मुक्त रहने का अभ्यास। महिलाओं में हीन भावना की समस्या ज्यादा देखी जाती है, यह स्वाभाविक भी है। पुरुष को अहं भाव अधिक सताता है तो महिलाओं को हीन भाव ज्यादा सताता है। हीन भाव और अहं भाव से मुक्त होकर संतुलित जीवन कैसे जिया जाए, यह एक प्रश्न है। हीनता के कारण भय पैदा होता है। भय के अनेक कारण हैं। भय के कारणों में भी आदमी बैठा है, इसलिए भय होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। हीनता की अनुभूति भी अस्वाभाविक बात नहीं है, किंतु जिसे संस्कार का निर्माण करना है, उसके लिए यह अभ्यास जरूरी है कि वह कैसे हीनता और अहं की ग्रंथियों से बचे।
संस्कार निर्माण का पहला सूत्र है -स्वार्थ का सीमाकरण। यह नहीं कहा जा सकता कि स्वार्थ को छोड़ दिया जाए। कोई भी व्यक्ति सर्वथा स्वार्थ को छोड़ नहीं सकता। राजनीतिक प्रणालियों में कितने परीक्षण हो गए। साम्यवादी प्रणाली में कम्यूनों का विकास हुआ, किंतु उन्हें लौटना पड़ा। यह समझ में आ गया कि वैयक्तिक स्वार्थ की पूर्ति हुए बिना आदमी में कोई अंत:प्रेरणा नहीं जाग सकती।
हमारी सबसे बड़ी अंत:प्रेरणा है स्वार्थ। वैयक्तिक स्वार्थ होता है, तब आदमी बहुत अच्छा काम करता है, मनोयोग से करता है। जहां समूह के लिए करना पड़ता है, वहां मनोवृत्ति दूसरे प्रकार की बन जाती है। वह सोचता है -सब काम कर रहे हैं, मैं अकेला नहीं करूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा। जहां कम्यून है, समुदायवाद है, वहां प्रेरणा दूसरा काम करती है। इसीलिए प्रजातंत्रीय प्रणाली में जितना विकास हो सका, व्यक्तिगत संपत्ति की स्वतंत्रता में जितना विकास हो सका, उतना नियंत्रित प्रणाली में नहीं हो पाया।
व्यक्तिगत स्वार्थ एक बहुत बड़ी प्रेरणा है। इस सचाई को हम अस्वीकार न करें। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता -अब स्वार्थ को छोड़ कर परमार्थ का जीवन जीएं। यह असंभव बात होगी और कोई मानेगा भी नहीं। इसलिए महत्वपूर्ण और जरूरी यह है कि यदि स्वार्थ को छोड़ न पाएं तो उसका सीमाकरण जरूर करें।
ऐसा स्वार्थ भी नहीं होना चाहिए, जो दूसरे के स्वार्थ में बाधा डाले, कठिनाई पैदा करे। यह है स्वार्थ का सीमाकरण। केवल अपना ही नहीं, दूसरों का हित भी तो सधना चाहिए। जहां इस तरह का संस्कार निर्मित होता है, हमारे व्यवहार की अनेक समस्याएं सुलझ जाती हैं। परिवारों में कलह क्यों होता है? इसीलिए कि जहां देवरानियां-जेठानियां अपने-अपने बच्चे को प्राथमिकता देना शुरू करती हैं। जहां सामुदायिक जीवन है, वहां अपने स्वार्थ को असीम न बनाएं, उसकी एक सीमा रखें कि इससे आगे नहीं बढ़ना है -तो समस्या कभी पैदा नहीं होगी।
संस्कार के निर्माण का दूसरा सूत्र है -उदार दृष्टिकोण। संकीर्ण दृष्टि से देखने वाला अपने आस-पास तक ही देख पाएगा। आदमी को दूर तक की, और आगे-पीछे की बात भी जरूर देखनी चाहिए। बहुत वर्ष पहले हम बीदासर की एक गली से होकर जा रहे थे। एक नोहरा देखा। उसकी जर्जर दीवारें ढह चुकी थीं, किंतु विशाल फाटक और उसमें झूलता बड़ा-सा ताला अभी भी लटक रहा था। आगे तो ताला लगा बड़ा-सा दरवाजा और नोहरे की चारों ओर की दीवारें ध्वस्त। ताले और दरवाजे का मतलब क्या रहा?
दृष्टिकोण संकुचित होगा तो व्यवहार में उलझनें पैदा होंगी। दृष्टिकोण व्यापक और उदार होगा तो व्यापक हितों की ओर ध्यान दिया जाएगा। संघर्ष का कारण ही संकुचित दृष्टिकोण है। संकुचित वृत्ति परिवार की भी समस्या है, समाज की भी समस्या है। बहुत सीमित दृष्टि से बात सोची जाती है इसलिए अनेक समस्याएं उलझ जाती हैं।
तीसरा सूत्र है -हीन भावना और अहंभावना से मुक्त रहने का अभ्यास। महिलाओं में हीन भावना की समस्या ज्यादा देखी जाती है, यह स्वाभाविक भी है। पुरुष को अहं भाव अधिक सताता है तो महिलाओं को हीन भाव ज्यादा सताता है। हीन भाव और अहं भाव से मुक्त होकर संतुलित जीवन कैसे जिया जाए, यह एक प्रश्न है। हीनता के कारण भय पैदा होता है। भय के अनेक कारण हैं। भय के कारणों में भी आदमी बैठा है, इसलिए भय होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। हीनता की अनुभूति भी अस्वाभाविक बात नहीं है, किंतु जिसे संस्कार का निर्माण करना है, उसके लिए यह अभ्यास जरूरी है कि वह कैसे हीनता और अहं की ग्रंथियों से बचे।
आध्यात्म विद्या सब विद्याओं की शिरोमणि है । इसलिए इसके जानने वाले को कुछ और जानने के लिए शेष नहीं रहता । भौतिक विद्याएँ तो सीमित क्षेत्र में कार्य करती हैं और उनका सीमित उपयोग है । जैसे धन प्राप्त करने की विद्या सीख कर आप खूब धन अर्जित कर सकते हैं परन्तु असीमित धन के बल पर भी क्या आप मन की शान्ति खरीद सकते हो ? मन की शान्ति जिससे की आप को सुखानुभूति होती है वह पैसे से नहीं मिलती ।
आप कभी यह भी देखेंगे कि पैसे से मन की शान्ति और सुख मिलता प्रतीत होता है । लेकिन सुख भी दो प्रकार का होता है । एक तो भ्रान्ति-जन्य सुख और दूसरा वास्तविक सुख । पैसे से प्राप्त होने वाला सुख वास्तव में सुख न होकर सुख की भ्रान्ति मात्र है जैसे की सीप में चाँदी की भ्रान्ति हो । यह भौतिक सुख क्षणिक होता है और उसके पीछे पहाड़ जैसा दु:ख छिपा होता है, तो वह सुख कहाँ से हुआ ?
भौतिक सुखों के बारे में तुलसीदास जी कहते हैं - ' स्वर्गउ स्वलप अंत दुखदाई ' अर्थात इस लोक से स्वर्ग लोक तक के सुख वास्तविक सुख की छाया मात्र है सत्य नहीं है । यदि कोई सारे जीवन इन प्रतिबिम्वित सुखों को लेकर खेलता रहा तो उसकी बुद्धि को क्या कहेंगे । परन्तु जो यथार्थ और शाश्वत सुख होता है वह तो आध्यात्मिक सुख ही है । इस प्रकार से विचारवान व्यक्ति तो इन दोनों सुखों की तुलना करता है परन्तु एक संसारी व्यक्ति भौतिक विषयों में सुख पाने की आशा रखकर इन्हें प्राप्त करने कि कामना करता है और सारा जीवन अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के प्रयास में गुजार देता है लेकिन उसकी कामनाओं का कभी अन्त नहीं होता । कामनाओं का रुप भले ही बदल गया हो लेकिन उसकी कामनायें कभी भी समाप्त नहीं होती ।
प्राचीन काल से जीवन का यही रुप चला आ रहा है । प्राचीनतम् साहित्य वेद हैं और वेदों ( तैत्तिरीय उपनिषद् ) में आता है कि हर व्यक्ति कामनाओं से प्रतिहत (घायल) है । तीनों लोकों में सब व्यक्ति कामनाओं से आक्रान्त होकर दु:ख पाते हैं । वहाँ पर कहा गया है कि व्यक्ति इस जगत् से ऊपर उठकर अपने आत्मस्वरुप को जाने तब इन कामनाओं की पीड़ा समाप्त हो । वही जीवन का उज्जवल रुप है । इस अवस्था के विषय में ऋषि कहते हैं - ' तत्र को मोहा क: शोक: एकत्वं अनुपश्यत् ' अर्थात् एक ऐसी अवस्था पर पहुँच गये कि एक ही तत्व सर्वत्र दिखाई देता है । जब अपने अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं तो मोह किससे होगा और जब कहीं मोह नहीं तो शोक हो तो कैसे हो ? और इस प्रकार दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो गई और व्यक्ति को परमानन्द की प्राप्ति हो गई ।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य इसी अवस्था को प्राप्त करना है । लेकिन जिस बुद्दि से व्यक्ति ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है, पूर्णता को प्राप्त कर सकता है, एक सही शिक्षा के अभाव में उसी बुद्दि को भ्रष्टाचार, दुराचार में प्रयोग करके अपना जीवन ही नष्ट कर ले और आसुरी जीवन जिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात क्या हो सकती है ? इसलिए विश्व की सभी संस्कृतियों का यही कहना है कि अपने को प्राप्त शक्तियों का सही प्रयोग करके जीवन के उच्च स्तरों को प्राप्त करो । भौतिक शिक्षा के साथ-साथ अपना चारित्रिक विकास भी करो और तब देखो कि कैसी सुखानुभूति होती है ।
व्यक्ति जो शाश्वत् सुख चाहता है वह शास्त्रों और गुरु की दी हुई शिक्षा के आधार पर प्राप्त कर सकता है । सभी संतों का यही अनुभव है कि शास्त्रों के अनुसार जीवन जीकर पता लगता है कि शास्त्रों में सब सत्य लिखा है । उदाहरण के रुप में एक धारणा यह है कि दरिद्री जीवन निकृष्ट जीवन है । शास्त्र भी कहते हैं कि यह बात ठीक है कि दरिद्री होने से सम्पन्न होना ज्यादा श्रेष्ठ है । लेकिन आप कहो कि सम्पन्नता ही अन्तिम बात है तो शास्त्र कहेगा कि यह गलत है, सम्पन्नता से सब कुछ प्राप्त नहीं होता । सम्पन्नता से आगे की चीज प्राप्त करने के लिए सम्पन्नता में अपनी आसक्ति छोड़ कर विरक्त हो जाओ । इस बारे में विचार करो, दूसरों के जीवन के उदाहरण भी देख लो और फिर इस प्रकार का विरक्त जीवन जीकर देखो । तब आपको पता लगेगा कि सम्पन्नता से भी अधिक आन्नददायक विरक्त जीवन है । इस सिद्धान्त की यथार्थता स्वंय अपने अनुभव से ज्ञात होती है । गौतम बुद्द, मीरा बाई, रामकृष्ण परमहँस आदि के जीवन के उदाहरण हमारे सामने हैं ।
शास्त्रों के बताये अनुसार परमात्मा पर विश्वास करके उसका नाम जप, ध्यान चिन्तन करो और स्वंय अपने अनुभव से देखो कि किस प्रकार हमारा आध्यात्मिक विकास होता है । व्यक्ति शरीर भाव से ऊपर उठ कर जीव भाव में आवे फिर विकास करते हुए आत्मभाव , परमात्म भाव में आवे । इससे व्यक्ति को भय, चिन्ता, क्लेश आदि से छुटकारा प्राप्त हो जाता है और अब वह भौतिक समृद्धि से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर भी नियंत्रण रखते हुए जीता है ।
आध्यात्म विद्या के व्यवहार में मुख्य बात है मानसिक शुद्धि । इसी के द्वारा आध्यात्मिक विकास होता है । इस आध्यात्म विद्या में आगे बढ़ने में बाधा भी केवल अशुद्ध मन है । कामनाओं से ग्रसित मन ही अशुद्ध मन है। मन को शुद्ध करने के लिए प्रारम्भिक उपाय है कि व्यक्ति समाज और शास्त्र के बनाये हुए जीवन जीने के नियमों (धर्म के नियमों ) में बंध कर जीवन व्यवहार करे । देखो अपने बन्धनों से छूटने के लिए व्यक्ति को बन्धन ही स्वीकार करना पड़ता है । और यदि धर्म की मर्यादा के नियमों को स्वेचछा से स्वीकार कर लें तो अधर्म के मार्ग पर चलने के कारण आने वाले अनपेक्षित बंधन उनके सामने नहीं आते । उदाहरण के रुप में यातायात के नियमों को मानने से ही और दूसरे आने वाले बंधनों (सड़क जाम, टकराहट आदि ) से छूट सकते हो ।
इसी प्रकार जीवन में जो धर्म के नियमों का पालन करेगा वह कहीं जाम में नहीं फँसेगा । माने उसके जीवन में विकास की गति रुकेगी नहीं । आपस में व्यवहार में टकराहट (गुस्सा, झगड़ा आदि ) नहीं होगी । एक स्वस्थ, सुन्दर समाज की रचना धर्म की सहायता से ही होगी, स्वेच्छाचारिता से नहीं। मानो धर्म ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का गेट वे आफ इण्डिया है । फिर भी धर्म के बल पर व्यक्ति को 20-25 प्रतिशत तक ही मानसिक शान्ति प्राप्त हो सकती है क्योंकि धर्म सीमित इन्द्रिय भोगों की स्वीकृति भी देता है जबकि अध्यात्म के मार्ग पर और आगे बढ़ने के लिए इन्द्रिय भोगों की कामनाओं को छोड़ना पड़ेगा , क्योंकि ये कामनायें व्यक्ति के मन को दूषित करती हैं और वह संसार जाल में और अधिक फँसता जाता है ।
उदाहरण के रुप में देखें कि अर्जुन के भाई धर्मराज युधिष्ठिर थे उनके साथ अर्जुन भी सदा धर्म के मार्ग पर चला लेकिन गीता के पहले अध्याय में वह शोक विह्लल होकर आँसू बहाने लगा । इससे पता लगता है कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को भी विषाद हो सकता है । इस विषाद से बचने का उपाय है गीता शास्त्र । भगवान कहते हैं कि धर्म का पालन तो करो लेकिन धर्म के आगे अध्यातम का जो मार्ग है उस पर जब तुम आगे बढ़ोगे तब इस शोक से तुम्हारी मुक्ति होगी । शोक होता है मोह के कारण । और अधिक सूक्ष्म विचार करें तो देखेंगे कि जब व्यक्ति को कामना होगी तो काम्य पदार्थों में मेरापन होगा एवं मोह होगा और मोह तो दु:ख देगा ही । इसके माने भोग्य पदार्थों की कामना त्यागने वाले व्यक्ति मोह से भी छूट जायेगा । समस्त मानसिक विकारों का मूल कामना ही है । कहा गया है कि ' आशायां परमं दुखं निराशायां परमं सुखम् ' - यहाँ पर कामना ही आशा है । जब तक आशा है तब तक दु:ख है । कामना छोड़ दें तो परम सुख है । लेकिन कामना के माने ' संकल्प प्रभावन्कामान् ' है , परमात्मा को पाने की कामना, कामना नहीं कहलाती । और इन कामनाओं पर विजय प्राप्त करना का उपाय है कि निष्काम भाव से कर्म करने का अभ्यास करे । कामनाओं के दोष भी देखें कि भौतिक विषयों की कामना पूर्ण होने पर भी कभी तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि फिर से नई कामना उत्पन्न हो जाती है ।
विचार करें कि जीवन कामनाओं से नहीं वरन् पुरुषार्थ से चलता है । व्यक्ति के अपने ही कर्म (पुरुषार्थ) ही आगे चलकर प्रारब्ध बनकर पुन: उसे मनुष्य का या किसी और प्राणी का शरीर प्राप्त कराते हैं । मनुष्य शरीर में भी सबका प्रारब्ध अलग- अलग है । यदि व्यक्ति का प्रारब्ध रजोगुण प्रधान है तो उसकी कामनायें प्रबल होंगी और इन कामनाओं से एकदम से छुटकारा नहीं हो सकता । भगवान् गीता के तीसरे अध्याय में कहते हैं कि ये कामनायें तुम्हारी सबसे बड़ी शत्रु हैं । इनके वास स्थान इन्द्रिय , मन और बुद्धि हैं । पहले तो इन्हें इन्द्रियों से भगाओ, भले ही ये भाग कर मन में बैठ जायें, परंतु कामना पर विजय यहीं से प्रारम्भ होती है ।
मनुष्य शरीर इसीलिए मिला है कि काम पर विजय प्राप्त करें । काम के माने केवल सेक्स नहीं है वरन् पाँचों इन्द्रिय-विषयों की मन में जो भी कामना उत्पन्न होती है वह सब कांम है । इसलिये व्यक्ति को निष्काम भाव रखते हुए पुरुषार्थ करते रहना चाहिये । इससे मन को विक्षिप्त करने वाली कामनायें समाप्त होकर मन शान्त होगा और व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त करने का अधिकारी होगा । इतिहास देखें तो पायेंगे कि सब संतों ने कामनाओं पर विजय प्राप्त की और वे महान् संत हुए, उनके लिए पुरुषार्थ करना कोई कठिन बात नहीं थी ।
शारीरिक जीवन-यात्रा चलाने के लिए जो कार्य किया जाता है चाहे वह निष्काम भाव से ही हो परन्तु वह भौतिक कार्य है । परन्तु यह निष्कामता उसके मन को इतना शांत बना देगी कि उसके मन में समझ आ जायेगा कि यदि हम भौतिक कार्य न करके आध्यात्मिक कार्य करें तो भी हमारा जीवन चल सकता है । " अनन्याश्चिन्तयन्तो मां, ये जना: पुर्युपास्ते " अर्थात अपने चित्त को परमात्मा में पूरी तरह जोड़ दो तो आपको अप्राप्त के प्राप्त की और प्राप्त की रक्षा करने का काम परमात्मा स्वंय करेगा । अनन्य की परिभाषा तुलसीदास जी ने स्वंय दी है- " सो अनन्य जाके मति अस न टरै हनुमन्त , मैं सेवक सचराचररुप स्वामि भगवन्त " -भगवान हनुमान जी को बता रहे हैं कि हे हनुमान अनन्य भक्ति वह होती है जब बुद्धि में यह आ जाये कि सारे विश्व में एक परमात्मा विद्यमान है और सारा जगत् उसी परमात्मा का ही एक रुप है और मैं उस परमात्मा का सेवक हूँ।
कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति निष्काम कर्म करने के बाद इस अवस्था में आ जाये कि हमें सारे जगत् की परमात्मा भाव से सेवा करनी है, जो व्यक्ति ऐसा करेगा परमात्मा जगत् के रुप में उसको अपना लेगा । परमात्मा की शरण में जाने को ही परमात्मा की उपासना कहते हैं । और ऐसे व्यक्ति को ही आगे विकास करते -करते परमात्मा की प्राप्ति होती है । जब व्यक्ति पारंपरिक तरीके से ऐसे गुरु से अध्यात्म विद्या सीखता है जिन्होंने अध्यात्म विद्या सीखकर उसके द्वारा तद्रूप अपने जीवन का निर्माण किया है तो व्यक्ति का अहंकार धीरे-धीरे घटता है । उसकी कामनायें घटती हैं । गुरु बताते हैं कि अपनी कामनाओं को समाप्त करने के लिए भौतिक कामनाओं के स्थान पर अपने ऊपर आध्यात्मिक कामनाओं का अध्यारोपण करें । आध्यात्मिक कामना में इतनी सामर्थ्य है कि वह भौतिक कामना को समाप्त कर देगी । यह सबके जीवन का अनुभव है कि दूसरी कोई काम्य वस्तु बुद्धि में आकर बैठ गई तो फिर पहले वाले काम्य पदार्थों में उसकी आसक्ती समाप्त हो जाती है ।
इसलिए विचार करो और साथ-साथ तीन बातों का ध्यान रखो कि (1) हमारे मन में विचारों की क्वालिटी श्रेष्ठ हो । (2) हमारे अन्त:करण में विचारों की सँख्या कम हो, उच्च कोटि के विचार सँख्या में कम होते हैं । (3) हमारे विचारों की दिशा अन्तर्मुखी हो ।
शांत होकर हम अपने अन्त:करण को देखें तो पता चलेगा कि जब भी कोई वाह्य विषय ( जैसे पुष्प) इन्द्रियों के द्वारा मन के सम्मुख आता है तो मन उसी विषय का आकार धारण कर लेता है । इसे विषयाकार वृत्ति कहते हैं । अब बुद्धि अपने चित्त में पूर्व संचित ज्ञान का सहारा लेकर उस विषय को पहचानने का प्रयत्न करती है । इस प्रकार पुष्प का ज्ञान हुआ तो इस पुष्प को जानने वाला एक अहं भी होता है। जब मन-बुद्धि की वृत्तियाँ कार्य करती हैं तो एक अहं की वृत्ति लगातार रहती है और बदलते हुए विषयों के ज्ञान में भी अहं वृत्ति एकसमान बनी रहती है । जब अहंकार होता है तो मन-बुद्धि की वृत्तियाँ कार्य करती हैं परन्तु जब अहंकार नष्ट हो जाता है जैसे सुषुप्तावस्था में, तो मन-बुद्धि की वृत्तियाँ भी लय हो जाती हैं । इससे सिद्ध होता है कि मन-बुद्धि की वृत्तियाँ इस अहंवृत्ति के अधीन हैं । अहं का मतलब है अपने अस्तित्व का बोध, इसका अर्थ घमण्ड नहीं है ।
अध्यात्म विद्या ऐसी साधना कराती है कि यह वैयक्तिक अहंकार समाप्त होकर उसके स्थान पर एक सर्वव्यापी चेतना में अहं भाव आ जाय । व्यावहारिक जीवन में भी देखते हैं कि ये वैयक्तिक अहंकार, गर्व, दर्प, घमण्ड, ईर्ष्या आदि उत्पन्न करता है और घातक है परन्तु व्यक्ति जब तक अज्ञान में है तब तो इसी मिथ्या अहंकार को सत्य समझकर इसकी रक्षा करता है । अहंकार का कारण तो अज्ञान (अविद्या ) है परन्तु इसका अधिष्ठान अज्ञान नहीं है वरन् वही सर्वव्यापी चैतन्य है जो वास्तविक अहं है। उदाहरण के रुप में तरंग के उत्पन्न होने का कारण तो वायु है परन्तु तरंग का अधिष्ठान वायु नहीं वरन् जल है ।
अविद्या ही सत्त्व, रजस व तमस है । यही प्रारब्ध है, यही कारण शरीर है । जब तक कारण विद्यमान है यह मन-बुद्धि व अहंकार रुपी तरंगे उत्पन्न करता रहता है । सुषुप्तावस्था में कोई तरंगे नहीं परन्तु उसके कारण शरीर में विद्यमान रजोगुण जब जोर मारता है तो उसके अन्त:करण में विद्यमान अहंकार और मन-बुद्धि की ये वृत्तियाँ पुन: उत्पन्न हो जाती हैं और वह जाग्रत अथवा स्वप्नावस्था में आ जाता है । इस प्रकार से जब तक ये तीनों गुण शान्त नहीं होते तब तक व्यक्ति सारा जीवन इन्हीं अवस्थाओं में घूमता रहता है । और अहंकार की वृत्ति कभी लीन हो जाती है कभी प्रकट हो जाती है ।
वाह्य जगत् प्रकृति का विशाल क्षेत्र है और भौतिक वैज्ञानिकों ने खोज करके इस वाह्य प्रकृति के बारे में कुछ नियम बना दिये हैं । विद्यार्थी प्रयोगशालाओं में प्रयोग करके उन नियमों को सत्य पाते हैं । इसी प्रकार हमारे ऋषि-मुनियों ने आंतरिक जगत् की प्रकृति की खोज की और जो नियम बताये उन्हें अपने ह्रदय की प्रयोगशाला में देखो और उनकी सत्यता परखो । अगर आपने उनकी सत्यता समझ ली तो आप भी आध्यात्मिक वैज्ञानिक बन गये । यदि आपने निष्काम कर्मयोग और कामना त्याग की साधना के द्वारा अपने में सत्त्वगुण इतना बढ़ा लिया कि अनुकूल -प्रतिकूल परिस्थिति में सम भाव से रह सकते हैं और आपका सौम्य स्वभाव हो गया है तो आप अपने ह्रदय में प्रवेश करके परमात्मा को प्राप्त करने के अधिकारी हो ।
ऐसे ही व्यक्ति के लिये भगवान् गीता के छठे अधायाय में साधना बताते हुए कहते हैं कि एकान्त स्थान में सुखासन में बैठकर शरीर को सीधा रखो और समस्त इन्द्रियों पर संयम रहे । अब मन को वाह्य विषयों से हटाकर अपने ह्रदय में ले जाओ और वहीं ह्रदय में रुकने का अभ्यास करो, मानो कि परमात्मा अकेले में मिलता है । ह्रदय के माने शारीर का कोई अंग नहीं बल्कि जिस समय अपने मन-बुद्धि, अहंकार की वृत्तियों को इनके लक्षणों के आधार पर देख रहे होते हैं तो हम जहाँ कहीं भी होते हैं उसी का नाम ह्रदय है । यह अशरीरी अवस्था है । छन्दोग्य उपनिषद् में ह्रदय का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वाह्य आकाश के समान उतना ही बड़ा आकाश अपने भीतर भी है, उसी में मन-बुद्धि, अहं की वृत्तियाँ विद्यमान हैं और वहीं पर इन वृत्तियों के अधिष्ठान के रुप में परमात्मा मिलेगा । लेकिन यदि व्यक्ति के भीतर वाह्य संसार की आसक्तियाँ (रजोगुण जन्य) हुई तो फिर इस आन्तरिक खोज में बाधा पड़ती है, क्योंकि ध्यानावस्था में मन उन आसक्तियों की और भागता है । इसलिए भगवान् राम को बताना पड़ा - " सब कर ममता ताग बटोरी, मम पद रहे बाँध बरजोरी "- अर्थात् व्यक्ति की ममता बहुत जगह होती है और व्यक्ति के सूक्ष्म तन्तु इस से जुड़े रहते हैं । भगवान् कहते हैं कि उन सब स्थानों से ममता के तन्तुओं को काटो और उन सब को इकट्ठा करके बटकर (बटोरी) एक रस्सी बना लो और उसको हमारे परमात्मा के पैरों में जोड़ दो । इसके माने मन में कल्पना करो कि मन के सामने अनुरक्त होने के लिए कोई सांसारिक वस्तु है ही नहीं, ऐसे में ध्यान से हटकर मन जायेगा कहाँ ? परमात्मा में लगाया तो वहीं लगा रहेगा । इस अवस्था में ह्रदय में रुको और अपनी अन्तर्दृष्टि से देखो कि ह्रदय में दो प्रकार की चीजें दिखाई देंगी - एक परिवर्तनशील और एक अपरिवर्तनशील । पहले केवल बदलने वाली वृत्तियाँ (परिवर्तनशील ) दिखाई देती हैं ।
वृत्तियाँ भी तीन प्रकार की होती हैं । (1) विजातीय वृत्तियाँ - अलग - अलग समय पर अलग - अलग वृत्तियाँ जैसे कभी घटाकर वृत्ति कभी पटाकर वृत्ति । (2) सजातीय वृत्तियाँ - एक ही प्रकार की वृत्ति बार-बार आती है । (3) स्वगत वृत्ति । तो परमात्मा तक पहुँचने के लिये पहले तो इन विजातीय वृत्तियों से पिण्ड छुडाओ । फिर सजातीय वृत्ति को आने दो माने एक ही प्रकार की वृत्ति बार-बार आती रहे, परन्तु जगत् का चिन्तन न हो। इसके लिये ऊँ की वृत्ति अपने मन में लाओ । जब अपने मन में ऊँ बोलोगे तो ओंकार की वृत्ति बन गई । दोबारा फिर ओंकार बोलो । इसी प्रकार बार-बार ओंकार की वृत्ति आने दो, यहाँ वृत्तियाँ बदल तो रही हैं लेकिन सब वृत्तियाँ एक सी हैं । इतना करना भी बहुत बड़ी सफलता है ।
इस अभ्यास को करते-करते विचार करो कि ओंकार की वृत्ति तो परिवर्तित हो रही है, परन्तु एक ऐसी चेतना है जिससे इस ओंकार की वृत्ति का उत्पन्न होना और लीन होना दिख रहा है । उपनिषद के ऋषि कहते हैं " न सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं नेमा विद्यतो भान्ति कुतोयमग्नि " - अर्थात् वहाँ पर न सूर्य है न चन्द्रमा और तारे , न ही वहाँ पर कोई बिजली चमक रही है और न ही कोई दीपक जल रहा है । वहाँ रोशनी काहे की है । जिसमें ओंकार की वृत्ति प्रकाशित हो रही है ।
हमें मानना पड़ेगा कि कोई एक प्रकाश है जिसमें यह वृत्ति प्रकाशित हो रही है और वह भौतिक प्रकाश नहीं है चेतना का प्रकाश है ।
मान लो क्षण भर के लिए ओंकार की वृत्ति शान्त हो जाय, अन्य कोई वृत्ति न हो तो कैसे ज्ञान होगा कि अब कोई भी वृत्ति नहीं है ? उसी चेतना के प्रकाश में ज्ञान होगा कि अब कोई भी वृत्ति नहीं है और पुन: ओंकार की वृत्ति उत्पन्न होगी तो उसी चेतना के प्रकाश में यह भी ज्ञान होगा कि अब एक वृत्ति उत्पन्न हो गई । वृत्तियाँ बदलती रहेंगी लेकिन चेतना का प्रकाश सदा एक समान बना रहेगा । यह चेतना सुषुप्ति , तुरीय, बेहोशी तक की अवस्था में बनी रहती है । इसका कभी अभाव नहीं होता । यह चेतना व्यक्ति को अपने ह्रदय में मिलती है, और इसका नाम है " साक्षी " । यह वृत्तीयों का असंग द्रष्टा है । इस चेतना का कोई रुपाकार नहीं, इसकी कोई सीमा नहीं ।
सदा बनी रहने वाली इस साक्षी चेतना की नित्यता का अनुभव करो । यह स्वंय अपनी सत्ता से विद्यमान है । इसके लिए शरीर-मन-बुद्धि की आवश्यकता नहीं है । मन-बुद्धि की वृत्तियों के शान्त होने के बाद भी यह विद्यमान है । इसी साक्षी को आत्मा कहते हैं । यह आत्मा ही परमात्मा है ।
इस अभ्यास में ध्यान यही रखना है कि ओंकार की वृत्ति का प्रवाह निरंतर हो, बीच में विजातीय वृत्ति न आने पाये । हर वृत्ति का अधिष्ठान आत्म चेतना है । उसी चेतना से ओंकार की वृत्ति उत्पन्न होती है और उसी में लीन हो जाती है तो ओंकार के साथ लगे रहोगे तो परमात्मा तक पहँच जाओगे । जितना ही परमात्मा को प्राप्त करने के लिये प्रेम होगा और रुची होगी, श्रद्धा होगी, उतनी ही जल्दी उस व्यक्ति को सफलता प्राप्त होगी । इस प्रकार परमात्मा में भक्ति, उसका ज्ञान, उसका ध्यान, उसका नाम सभी परमात्मा तक पहुँचाने वाला है। तुलसीदास जी कहते हैं कि -
व्यापक एक ब्रह्म अविनासी, सत चेतन घन आनन्दरासी ।
अस प्रभु ह्रदय अछत अबिकारी, सकल जीव जग दीन दुखारी ।।
नाम निरुपन नाम जतन ते, सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन ते ।।
परमात्मा तो सब जगह विद्यमान है तो अपने ह्रदय में भी है और वह सत् चित् आनन्द स्वरुप है तो अपने ह्रदय में परमात्मा के आनन्द का अनुभव होना चाहिये । फिर भी यदि उसका अनुभव नहीं हो रहा है तो इसका कारण है कि वह एक प्रकार से आच्छादित सा है । आप अपने ह्रदय में रामनाम जपो और यह नाम आपको परमात्मा तक पहुँचा देगा । आप नाम के साथ आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो । वह आप को जहाँ ले जाता है वहाँ अपने शान्त मन से अनुभव करो, देखो क्या है । वहाँ आप को परमात्मा के वे सभी लक्षण मिलेंगे जो शास्त्रों में कहे गये है ।
इस प्रकार से इस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो तो धीरे-धीरे करके कालांतर में आपके पुरुषार्थ और ऋषियों के आशीर्वाद से सफलता अवश्य प्राप्त होगी ।
आप कभी यह भी देखेंगे कि पैसे से मन की शान्ति और सुख मिलता प्रतीत होता है । लेकिन सुख भी दो प्रकार का होता है । एक तो भ्रान्ति-जन्य सुख और दूसरा वास्तविक सुख । पैसे से प्राप्त होने वाला सुख वास्तव में सुख न होकर सुख की भ्रान्ति मात्र है जैसे की सीप में चाँदी की भ्रान्ति हो । यह भौतिक सुख क्षणिक होता है और उसके पीछे पहाड़ जैसा दु:ख छिपा होता है, तो वह सुख कहाँ से हुआ ?
भौतिक सुखों के बारे में तुलसीदास जी कहते हैं - ' स्वर्गउ स्वलप अंत दुखदाई ' अर्थात इस लोक से स्वर्ग लोक तक के सुख वास्तविक सुख की छाया मात्र है सत्य नहीं है । यदि कोई सारे जीवन इन प्रतिबिम्वित सुखों को लेकर खेलता रहा तो उसकी बुद्धि को क्या कहेंगे । परन्तु जो यथार्थ और शाश्वत सुख होता है वह तो आध्यात्मिक सुख ही है । इस प्रकार से विचारवान व्यक्ति तो इन दोनों सुखों की तुलना करता है परन्तु एक संसारी व्यक्ति भौतिक विषयों में सुख पाने की आशा रखकर इन्हें प्राप्त करने कि कामना करता है और सारा जीवन अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के प्रयास में गुजार देता है लेकिन उसकी कामनाओं का कभी अन्त नहीं होता । कामनाओं का रुप भले ही बदल गया हो लेकिन उसकी कामनायें कभी भी समाप्त नहीं होती ।
प्राचीन काल से जीवन का यही रुप चला आ रहा है । प्राचीनतम् साहित्य वेद हैं और वेदों ( तैत्तिरीय उपनिषद् ) में आता है कि हर व्यक्ति कामनाओं से प्रतिहत (घायल) है । तीनों लोकों में सब व्यक्ति कामनाओं से आक्रान्त होकर दु:ख पाते हैं । वहाँ पर कहा गया है कि व्यक्ति इस जगत् से ऊपर उठकर अपने आत्मस्वरुप को जाने तब इन कामनाओं की पीड़ा समाप्त हो । वही जीवन का उज्जवल रुप है । इस अवस्था के विषय में ऋषि कहते हैं - ' तत्र को मोहा क: शोक: एकत्वं अनुपश्यत् ' अर्थात् एक ऐसी अवस्था पर पहुँच गये कि एक ही तत्व सर्वत्र दिखाई देता है । जब अपने अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं तो मोह किससे होगा और जब कहीं मोह नहीं तो शोक हो तो कैसे हो ? और इस प्रकार दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो गई और व्यक्ति को परमानन्द की प्राप्ति हो गई ।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य इसी अवस्था को प्राप्त करना है । लेकिन जिस बुद्दि से व्यक्ति ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है, पूर्णता को प्राप्त कर सकता है, एक सही शिक्षा के अभाव में उसी बुद्दि को भ्रष्टाचार, दुराचार में प्रयोग करके अपना जीवन ही नष्ट कर ले और आसुरी जीवन जिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात क्या हो सकती है ? इसलिए विश्व की सभी संस्कृतियों का यही कहना है कि अपने को प्राप्त शक्तियों का सही प्रयोग करके जीवन के उच्च स्तरों को प्राप्त करो । भौतिक शिक्षा के साथ-साथ अपना चारित्रिक विकास भी करो और तब देखो कि कैसी सुखानुभूति होती है ।
व्यक्ति जो शाश्वत् सुख चाहता है वह शास्त्रों और गुरु की दी हुई शिक्षा के आधार पर प्राप्त कर सकता है । सभी संतों का यही अनुभव है कि शास्त्रों के अनुसार जीवन जीकर पता लगता है कि शास्त्रों में सब सत्य लिखा है । उदाहरण के रुप में एक धारणा यह है कि दरिद्री जीवन निकृष्ट जीवन है । शास्त्र भी कहते हैं कि यह बात ठीक है कि दरिद्री होने से सम्पन्न होना ज्यादा श्रेष्ठ है । लेकिन आप कहो कि सम्पन्नता ही अन्तिम बात है तो शास्त्र कहेगा कि यह गलत है, सम्पन्नता से सब कुछ प्राप्त नहीं होता । सम्पन्नता से आगे की चीज प्राप्त करने के लिए सम्पन्नता में अपनी आसक्ति छोड़ कर विरक्त हो जाओ । इस बारे में विचार करो, दूसरों के जीवन के उदाहरण भी देख लो और फिर इस प्रकार का विरक्त जीवन जीकर देखो । तब आपको पता लगेगा कि सम्पन्नता से भी अधिक आन्नददायक विरक्त जीवन है । इस सिद्धान्त की यथार्थता स्वंय अपने अनुभव से ज्ञात होती है । गौतम बुद्द, मीरा बाई, रामकृष्ण परमहँस आदि के जीवन के उदाहरण हमारे सामने हैं ।
शास्त्रों के बताये अनुसार परमात्मा पर विश्वास करके उसका नाम जप, ध्यान चिन्तन करो और स्वंय अपने अनुभव से देखो कि किस प्रकार हमारा आध्यात्मिक विकास होता है । व्यक्ति शरीर भाव से ऊपर उठ कर जीव भाव में आवे फिर विकास करते हुए आत्मभाव , परमात्म भाव में आवे । इससे व्यक्ति को भय, चिन्ता, क्लेश आदि से छुटकारा प्राप्त हो जाता है और अब वह भौतिक समृद्धि से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर भी नियंत्रण रखते हुए जीता है ।
आध्यात्म विद्या के व्यवहार में मुख्य बात है मानसिक शुद्धि । इसी के द्वारा आध्यात्मिक विकास होता है । इस आध्यात्म विद्या में आगे बढ़ने में बाधा भी केवल अशुद्ध मन है । कामनाओं से ग्रसित मन ही अशुद्ध मन है। मन को शुद्ध करने के लिए प्रारम्भिक उपाय है कि व्यक्ति समाज और शास्त्र के बनाये हुए जीवन जीने के नियमों (धर्म के नियमों ) में बंध कर जीवन व्यवहार करे । देखो अपने बन्धनों से छूटने के लिए व्यक्ति को बन्धन ही स्वीकार करना पड़ता है । और यदि धर्म की मर्यादा के नियमों को स्वेचछा से स्वीकार कर लें तो अधर्म के मार्ग पर चलने के कारण आने वाले अनपेक्षित बंधन उनके सामने नहीं आते । उदाहरण के रुप में यातायात के नियमों को मानने से ही और दूसरे आने वाले बंधनों (सड़क जाम, टकराहट आदि ) से छूट सकते हो ।
इसी प्रकार जीवन में जो धर्म के नियमों का पालन करेगा वह कहीं जाम में नहीं फँसेगा । माने उसके जीवन में विकास की गति रुकेगी नहीं । आपस में व्यवहार में टकराहट (गुस्सा, झगड़ा आदि ) नहीं होगी । एक स्वस्थ, सुन्दर समाज की रचना धर्म की सहायता से ही होगी, स्वेच्छाचारिता से नहीं। मानो धर्म ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का गेट वे आफ इण्डिया है । फिर भी धर्म के बल पर व्यक्ति को 20-25 प्रतिशत तक ही मानसिक शान्ति प्राप्त हो सकती है क्योंकि धर्म सीमित इन्द्रिय भोगों की स्वीकृति भी देता है जबकि अध्यात्म के मार्ग पर और आगे बढ़ने के लिए इन्द्रिय भोगों की कामनाओं को छोड़ना पड़ेगा , क्योंकि ये कामनायें व्यक्ति के मन को दूषित करती हैं और वह संसार जाल में और अधिक फँसता जाता है ।
उदाहरण के रुप में देखें कि अर्जुन के भाई धर्मराज युधिष्ठिर थे उनके साथ अर्जुन भी सदा धर्म के मार्ग पर चला लेकिन गीता के पहले अध्याय में वह शोक विह्लल होकर आँसू बहाने लगा । इससे पता लगता है कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को भी विषाद हो सकता है । इस विषाद से बचने का उपाय है गीता शास्त्र । भगवान कहते हैं कि धर्म का पालन तो करो लेकिन धर्म के आगे अध्यातम का जो मार्ग है उस पर जब तुम आगे बढ़ोगे तब इस शोक से तुम्हारी मुक्ति होगी । शोक होता है मोह के कारण । और अधिक सूक्ष्म विचार करें तो देखेंगे कि जब व्यक्ति को कामना होगी तो काम्य पदार्थों में मेरापन होगा एवं मोह होगा और मोह तो दु:ख देगा ही । इसके माने भोग्य पदार्थों की कामना त्यागने वाले व्यक्ति मोह से भी छूट जायेगा । समस्त मानसिक विकारों का मूल कामना ही है । कहा गया है कि ' आशायां परमं दुखं निराशायां परमं सुखम् ' - यहाँ पर कामना ही आशा है । जब तक आशा है तब तक दु:ख है । कामना छोड़ दें तो परम सुख है । लेकिन कामना के माने ' संकल्प प्रभावन्कामान् ' है , परमात्मा को पाने की कामना, कामना नहीं कहलाती । और इन कामनाओं पर विजय प्राप्त करना का उपाय है कि निष्काम भाव से कर्म करने का अभ्यास करे । कामनाओं के दोष भी देखें कि भौतिक विषयों की कामना पूर्ण होने पर भी कभी तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि फिर से नई कामना उत्पन्न हो जाती है ।
विचार करें कि जीवन कामनाओं से नहीं वरन् पुरुषार्थ से चलता है । व्यक्ति के अपने ही कर्म (पुरुषार्थ) ही आगे चलकर प्रारब्ध बनकर पुन: उसे मनुष्य का या किसी और प्राणी का शरीर प्राप्त कराते हैं । मनुष्य शरीर में भी सबका प्रारब्ध अलग- अलग है । यदि व्यक्ति का प्रारब्ध रजोगुण प्रधान है तो उसकी कामनायें प्रबल होंगी और इन कामनाओं से एकदम से छुटकारा नहीं हो सकता । भगवान् गीता के तीसरे अध्याय में कहते हैं कि ये कामनायें तुम्हारी सबसे बड़ी शत्रु हैं । इनके वास स्थान इन्द्रिय , मन और बुद्धि हैं । पहले तो इन्हें इन्द्रियों से भगाओ, भले ही ये भाग कर मन में बैठ जायें, परंतु कामना पर विजय यहीं से प्रारम्भ होती है ।
मनुष्य शरीर इसीलिए मिला है कि काम पर विजय प्राप्त करें । काम के माने केवल सेक्स नहीं है वरन् पाँचों इन्द्रिय-विषयों की मन में जो भी कामना उत्पन्न होती है वह सब कांम है । इसलिये व्यक्ति को निष्काम भाव रखते हुए पुरुषार्थ करते रहना चाहिये । इससे मन को विक्षिप्त करने वाली कामनायें समाप्त होकर मन शान्त होगा और व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त करने का अधिकारी होगा । इतिहास देखें तो पायेंगे कि सब संतों ने कामनाओं पर विजय प्राप्त की और वे महान् संत हुए, उनके लिए पुरुषार्थ करना कोई कठिन बात नहीं थी ।
शारीरिक जीवन-यात्रा चलाने के लिए जो कार्य किया जाता है चाहे वह निष्काम भाव से ही हो परन्तु वह भौतिक कार्य है । परन्तु यह निष्कामता उसके मन को इतना शांत बना देगी कि उसके मन में समझ आ जायेगा कि यदि हम भौतिक कार्य न करके आध्यात्मिक कार्य करें तो भी हमारा जीवन चल सकता है । " अनन्याश्चिन्तयन्तो मां, ये जना: पुर्युपास्ते " अर्थात अपने चित्त को परमात्मा में पूरी तरह जोड़ दो तो आपको अप्राप्त के प्राप्त की और प्राप्त की रक्षा करने का काम परमात्मा स्वंय करेगा । अनन्य की परिभाषा तुलसीदास जी ने स्वंय दी है- " सो अनन्य जाके मति अस न टरै हनुमन्त , मैं सेवक सचराचररुप स्वामि भगवन्त " -भगवान हनुमान जी को बता रहे हैं कि हे हनुमान अनन्य भक्ति वह होती है जब बुद्धि में यह आ जाये कि सारे विश्व में एक परमात्मा विद्यमान है और सारा जगत् उसी परमात्मा का ही एक रुप है और मैं उस परमात्मा का सेवक हूँ।
कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति निष्काम कर्म करने के बाद इस अवस्था में आ जाये कि हमें सारे जगत् की परमात्मा भाव से सेवा करनी है, जो व्यक्ति ऐसा करेगा परमात्मा जगत् के रुप में उसको अपना लेगा । परमात्मा की शरण में जाने को ही परमात्मा की उपासना कहते हैं । और ऐसे व्यक्ति को ही आगे विकास करते -करते परमात्मा की प्राप्ति होती है । जब व्यक्ति पारंपरिक तरीके से ऐसे गुरु से अध्यात्म विद्या सीखता है जिन्होंने अध्यात्म विद्या सीखकर उसके द्वारा तद्रूप अपने जीवन का निर्माण किया है तो व्यक्ति का अहंकार धीरे-धीरे घटता है । उसकी कामनायें घटती हैं । गुरु बताते हैं कि अपनी कामनाओं को समाप्त करने के लिए भौतिक कामनाओं के स्थान पर अपने ऊपर आध्यात्मिक कामनाओं का अध्यारोपण करें । आध्यात्मिक कामना में इतनी सामर्थ्य है कि वह भौतिक कामना को समाप्त कर देगी । यह सबके जीवन का अनुभव है कि दूसरी कोई काम्य वस्तु बुद्धि में आकर बैठ गई तो फिर पहले वाले काम्य पदार्थों में उसकी आसक्ती समाप्त हो जाती है ।
इसलिए विचार करो और साथ-साथ तीन बातों का ध्यान रखो कि (1) हमारे मन में विचारों की क्वालिटी श्रेष्ठ हो । (2) हमारे अन्त:करण में विचारों की सँख्या कम हो, उच्च कोटि के विचार सँख्या में कम होते हैं । (3) हमारे विचारों की दिशा अन्तर्मुखी हो ।
शांत होकर हम अपने अन्त:करण को देखें तो पता चलेगा कि जब भी कोई वाह्य विषय ( जैसे पुष्प) इन्द्रियों के द्वारा मन के सम्मुख आता है तो मन उसी विषय का आकार धारण कर लेता है । इसे विषयाकार वृत्ति कहते हैं । अब बुद्धि अपने चित्त में पूर्व संचित ज्ञान का सहारा लेकर उस विषय को पहचानने का प्रयत्न करती है । इस प्रकार पुष्प का ज्ञान हुआ तो इस पुष्प को जानने वाला एक अहं भी होता है। जब मन-बुद्धि की वृत्तियाँ कार्य करती हैं तो एक अहं की वृत्ति लगातार रहती है और बदलते हुए विषयों के ज्ञान में भी अहं वृत्ति एकसमान बनी रहती है । जब अहंकार होता है तो मन-बुद्धि की वृत्तियाँ कार्य करती हैं परन्तु जब अहंकार नष्ट हो जाता है जैसे सुषुप्तावस्था में, तो मन-बुद्धि की वृत्तियाँ भी लय हो जाती हैं । इससे सिद्ध होता है कि मन-बुद्धि की वृत्तियाँ इस अहंवृत्ति के अधीन हैं । अहं का मतलब है अपने अस्तित्व का बोध, इसका अर्थ घमण्ड नहीं है ।
अध्यात्म विद्या ऐसी साधना कराती है कि यह वैयक्तिक अहंकार समाप्त होकर उसके स्थान पर एक सर्वव्यापी चेतना में अहं भाव आ जाय । व्यावहारिक जीवन में भी देखते हैं कि ये वैयक्तिक अहंकार, गर्व, दर्प, घमण्ड, ईर्ष्या आदि उत्पन्न करता है और घातक है परन्तु व्यक्ति जब तक अज्ञान में है तब तो इसी मिथ्या अहंकार को सत्य समझकर इसकी रक्षा करता है । अहंकार का कारण तो अज्ञान (अविद्या ) है परन्तु इसका अधिष्ठान अज्ञान नहीं है वरन् वही सर्वव्यापी चैतन्य है जो वास्तविक अहं है। उदाहरण के रुप में तरंग के उत्पन्न होने का कारण तो वायु है परन्तु तरंग का अधिष्ठान वायु नहीं वरन् जल है ।
अविद्या ही सत्त्व, रजस व तमस है । यही प्रारब्ध है, यही कारण शरीर है । जब तक कारण विद्यमान है यह मन-बुद्धि व अहंकार रुपी तरंगे उत्पन्न करता रहता है । सुषुप्तावस्था में कोई तरंगे नहीं परन्तु उसके कारण शरीर में विद्यमान रजोगुण जब जोर मारता है तो उसके अन्त:करण में विद्यमान अहंकार और मन-बुद्धि की ये वृत्तियाँ पुन: उत्पन्न हो जाती हैं और वह जाग्रत अथवा स्वप्नावस्था में आ जाता है । इस प्रकार से जब तक ये तीनों गुण शान्त नहीं होते तब तक व्यक्ति सारा जीवन इन्हीं अवस्थाओं में घूमता रहता है । और अहंकार की वृत्ति कभी लीन हो जाती है कभी प्रकट हो जाती है ।
वाह्य जगत् प्रकृति का विशाल क्षेत्र है और भौतिक वैज्ञानिकों ने खोज करके इस वाह्य प्रकृति के बारे में कुछ नियम बना दिये हैं । विद्यार्थी प्रयोगशालाओं में प्रयोग करके उन नियमों को सत्य पाते हैं । इसी प्रकार हमारे ऋषि-मुनियों ने आंतरिक जगत् की प्रकृति की खोज की और जो नियम बताये उन्हें अपने ह्रदय की प्रयोगशाला में देखो और उनकी सत्यता परखो । अगर आपने उनकी सत्यता समझ ली तो आप भी आध्यात्मिक वैज्ञानिक बन गये । यदि आपने निष्काम कर्मयोग और कामना त्याग की साधना के द्वारा अपने में सत्त्वगुण इतना बढ़ा लिया कि अनुकूल -प्रतिकूल परिस्थिति में सम भाव से रह सकते हैं और आपका सौम्य स्वभाव हो गया है तो आप अपने ह्रदय में प्रवेश करके परमात्मा को प्राप्त करने के अधिकारी हो ।
ऐसे ही व्यक्ति के लिये भगवान् गीता के छठे अधायाय में साधना बताते हुए कहते हैं कि एकान्त स्थान में सुखासन में बैठकर शरीर को सीधा रखो और समस्त इन्द्रियों पर संयम रहे । अब मन को वाह्य विषयों से हटाकर अपने ह्रदय में ले जाओ और वहीं ह्रदय में रुकने का अभ्यास करो, मानो कि परमात्मा अकेले में मिलता है । ह्रदय के माने शारीर का कोई अंग नहीं बल्कि जिस समय अपने मन-बुद्धि, अहंकार की वृत्तियों को इनके लक्षणों के आधार पर देख रहे होते हैं तो हम जहाँ कहीं भी होते हैं उसी का नाम ह्रदय है । यह अशरीरी अवस्था है । छन्दोग्य उपनिषद् में ह्रदय का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वाह्य आकाश के समान उतना ही बड़ा आकाश अपने भीतर भी है, उसी में मन-बुद्धि, अहं की वृत्तियाँ विद्यमान हैं और वहीं पर इन वृत्तियों के अधिष्ठान के रुप में परमात्मा मिलेगा । लेकिन यदि व्यक्ति के भीतर वाह्य संसार की आसक्तियाँ (रजोगुण जन्य) हुई तो फिर इस आन्तरिक खोज में बाधा पड़ती है, क्योंकि ध्यानावस्था में मन उन आसक्तियों की और भागता है । इसलिए भगवान् राम को बताना पड़ा - " सब कर ममता ताग बटोरी, मम पद रहे बाँध बरजोरी "- अर्थात् व्यक्ति की ममता बहुत जगह होती है और व्यक्ति के सूक्ष्म तन्तु इस से जुड़े रहते हैं । भगवान् कहते हैं कि उन सब स्थानों से ममता के तन्तुओं को काटो और उन सब को इकट्ठा करके बटकर (बटोरी) एक रस्सी बना लो और उसको हमारे परमात्मा के पैरों में जोड़ दो । इसके माने मन में कल्पना करो कि मन के सामने अनुरक्त होने के लिए कोई सांसारिक वस्तु है ही नहीं, ऐसे में ध्यान से हटकर मन जायेगा कहाँ ? परमात्मा में लगाया तो वहीं लगा रहेगा । इस अवस्था में ह्रदय में रुको और अपनी अन्तर्दृष्टि से देखो कि ह्रदय में दो प्रकार की चीजें दिखाई देंगी - एक परिवर्तनशील और एक अपरिवर्तनशील । पहले केवल बदलने वाली वृत्तियाँ (परिवर्तनशील ) दिखाई देती हैं ।
वृत्तियाँ भी तीन प्रकार की होती हैं । (1) विजातीय वृत्तियाँ - अलग - अलग समय पर अलग - अलग वृत्तियाँ जैसे कभी घटाकर वृत्ति कभी पटाकर वृत्ति । (2) सजातीय वृत्तियाँ - एक ही प्रकार की वृत्ति बार-बार आती है । (3) स्वगत वृत्ति । तो परमात्मा तक पहुँचने के लिये पहले तो इन विजातीय वृत्तियों से पिण्ड छुडाओ । फिर सजातीय वृत्ति को आने दो माने एक ही प्रकार की वृत्ति बार-बार आती रहे, परन्तु जगत् का चिन्तन न हो। इसके लिये ऊँ की वृत्ति अपने मन में लाओ । जब अपने मन में ऊँ बोलोगे तो ओंकार की वृत्ति बन गई । दोबारा फिर ओंकार बोलो । इसी प्रकार बार-बार ओंकार की वृत्ति आने दो, यहाँ वृत्तियाँ बदल तो रही हैं लेकिन सब वृत्तियाँ एक सी हैं । इतना करना भी बहुत बड़ी सफलता है ।
इस अभ्यास को करते-करते विचार करो कि ओंकार की वृत्ति तो परिवर्तित हो रही है, परन्तु एक ऐसी चेतना है जिससे इस ओंकार की वृत्ति का उत्पन्न होना और लीन होना दिख रहा है । उपनिषद के ऋषि कहते हैं " न सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं नेमा विद्यतो भान्ति कुतोयमग्नि " - अर्थात् वहाँ पर न सूर्य है न चन्द्रमा और तारे , न ही वहाँ पर कोई बिजली चमक रही है और न ही कोई दीपक जल रहा है । वहाँ रोशनी काहे की है । जिसमें ओंकार की वृत्ति प्रकाशित हो रही है ।
हमें मानना पड़ेगा कि कोई एक प्रकाश है जिसमें यह वृत्ति प्रकाशित हो रही है और वह भौतिक प्रकाश नहीं है चेतना का प्रकाश है ।
मान लो क्षण भर के लिए ओंकार की वृत्ति शान्त हो जाय, अन्य कोई वृत्ति न हो तो कैसे ज्ञान होगा कि अब कोई भी वृत्ति नहीं है ? उसी चेतना के प्रकाश में ज्ञान होगा कि अब कोई भी वृत्ति नहीं है और पुन: ओंकार की वृत्ति उत्पन्न होगी तो उसी चेतना के प्रकाश में यह भी ज्ञान होगा कि अब एक वृत्ति उत्पन्न हो गई । वृत्तियाँ बदलती रहेंगी लेकिन चेतना का प्रकाश सदा एक समान बना रहेगा । यह चेतना सुषुप्ति , तुरीय, बेहोशी तक की अवस्था में बनी रहती है । इसका कभी अभाव नहीं होता । यह चेतना व्यक्ति को अपने ह्रदय में मिलती है, और इसका नाम है " साक्षी " । यह वृत्तीयों का असंग द्रष्टा है । इस चेतना का कोई रुपाकार नहीं, इसकी कोई सीमा नहीं ।
सदा बनी रहने वाली इस साक्षी चेतना की नित्यता का अनुभव करो । यह स्वंय अपनी सत्ता से विद्यमान है । इसके लिए शरीर-मन-बुद्धि की आवश्यकता नहीं है । मन-बुद्धि की वृत्तियों के शान्त होने के बाद भी यह विद्यमान है । इसी साक्षी को आत्मा कहते हैं । यह आत्मा ही परमात्मा है ।
इस अभ्यास में ध्यान यही रखना है कि ओंकार की वृत्ति का प्रवाह निरंतर हो, बीच में विजातीय वृत्ति न आने पाये । हर वृत्ति का अधिष्ठान आत्म चेतना है । उसी चेतना से ओंकार की वृत्ति उत्पन्न होती है और उसी में लीन हो जाती है तो ओंकार के साथ लगे रहोगे तो परमात्मा तक पहँच जाओगे । जितना ही परमात्मा को प्राप्त करने के लिये प्रेम होगा और रुची होगी, श्रद्धा होगी, उतनी ही जल्दी उस व्यक्ति को सफलता प्राप्त होगी । इस प्रकार परमात्मा में भक्ति, उसका ज्ञान, उसका ध्यान, उसका नाम सभी परमात्मा तक पहुँचाने वाला है। तुलसीदास जी कहते हैं कि -
व्यापक एक ब्रह्म अविनासी, सत चेतन घन आनन्दरासी ।
अस प्रभु ह्रदय अछत अबिकारी, सकल जीव जग दीन दुखारी ।।
नाम निरुपन नाम जतन ते, सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन ते ।।
परमात्मा तो सब जगह विद्यमान है तो अपने ह्रदय में भी है और वह सत् चित् आनन्द स्वरुप है तो अपने ह्रदय में परमात्मा के आनन्द का अनुभव होना चाहिये । फिर भी यदि उसका अनुभव नहीं हो रहा है तो इसका कारण है कि वह एक प्रकार से आच्छादित सा है । आप अपने ह्रदय में रामनाम जपो और यह नाम आपको परमात्मा तक पहुँचा देगा । आप नाम के साथ आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो । वह आप को जहाँ ले जाता है वहाँ अपने शान्त मन से अनुभव करो, देखो क्या है । वहाँ आप को परमात्मा के वे सभी लक्षण मिलेंगे जो शास्त्रों में कहे गये है ।
इस प्रकार से इस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो तो धीरे-धीरे करके कालांतर में आपके पुरुषार्थ और ऋषियों के आशीर्वाद से सफलता अवश्य प्राप्त होगी ।
प्रथम – सर्जन – सर्ग (छन्द-ताटंक) |
श्रद्धा तभी परम प्रति होनी, ईश्वर विश्व रूप है॥
ध्येय युक्त जो बुद्धि कहाती, अस्त-व्यस्त व व्यवस्थित।
अस्त-व्यस्त जो ’द्वन्द्व बुद्धि’ है, ’समत्व बुद्धि’ व्यवस्थित॥२१॥
कर्तव और अकर्तव, धर्म व, अधर्म यथार्थ न जानें।
ऐसी ’बुद्धि राजसी’ होती, अहं भाव मदमानें॥
तामस गुण आवेश अधर्मों, माने धर्म जो बुद्धि।
कार्य रूप प्रकृति तेइसों, गुण विभाग ’विषय बुद्धि’॥२३॥
बुद्धि अधिष्ठाता ’ब्रह्मा जी’, उपास्य देव ’प्रद्युमन’।
बुद्धि तत्व प्रद्युमन कहाये, बुद्धि कार्य वृत्ति लक्षण॥
निश्चय, संशय, याद, विपर्यय, नीद वृत्तियाँ जानें।
कार्य शक्ति प्राणों की जानें, ज्ञान बुद्धि बल मानें॥२४॥
वेद, शास्त्र में किसी वस्तु का, स्वरूप वर्णन सुनने।
तद् विषयक निश्चय होता जो, कहें ’श्रुत बुद्धि’ गुनने॥
ऐसे ही अनुमान युक्ति जो, वस्तु रूप निश्चय हो।
कहें वही ’अनुमान बुद्धि’ है, सादा रूप विषय हो॥२५॥
जो कुछ पढ़ा, सुना, देखा वह, स्मृति में ठहराये।
ऐसी ’प्रखर बुद्धि’ स्मृति गुण, स्थिर ज्ञान कराये॥
देखी वस्तु स्वरूप न असली, दूजी वस्तु समझ रह।
रजत सीप, रस्सी भुजंग कह, ’भेद बुद्धि’ विपर्यय॥२६॥
पुरुष-प्रकृति दोनों रूप का, अलग यथार्थ ज्ञान हो।
वही ’विवेक ज्ञान’ कहलाये, ज्ञानई जगत मान हो॥
महत्वाकांक्षा, कौशल बुद्धिः, सृजन, सभ्यता, संस्कृति।
वैभव सारा, दूरदर्शिता, ज्ञान ’विवेक बुद्धि’ कृति॥२७॥
विवेक ज्ञान समाधि लगाये, स्वच्छ पूर्ण निश्चल हो।
अविप्लव ये ज्ञान विवेकी, निर्मल स्वच्छ सवल हो॥
श्रुति, अनुमान बुद्धि तो सादा, ईश्वर ज्ञान कहाँ हो?
पूर्ण ज्ञान, अंग-प्रत्यंग संग, ’ऋतम्भरा प्रज्ञा’ हो॥२८॥
सोच-बोल अरु कृत्य जीव का, सब कल्याणक होये।
’ईश्वर बुद्धि’ ऋतम्भरा प्रज्ञा, परम श्रेष्ठतम होये॥
ध्येय वस्तु धारणा, ध्यान अरु, समाधि तीनों संयम।
विषय वस्तु संयम तुरन्त हो, मति प्रकाश फल संयम॥२९॥
यह अध्यात्म प्रसाद अलौकिक, ज्ञान शक्ति कहलाये।
प्रज्ञा का आलोक यही है, ’ऋतम्भरा’ कहलाये॥
परमेश्वर भगवान तेज से, तीनों देव प्रकट हों।
सृष्टि, पालना और प्रलय के, निमित्त स्वयं प्रकट हों॥३०॥
वाम पार्श्व से प्रजा पालने, ’विष्णु’ देवता प्रकटे।
पार्श्व दाहिने सृष्टि हेतु प्रभु, लोक पितामह प्रकटे॥
महादेअ की स्तुति दोनों, अविचल भक्ति प्राप्त की।
ब्रह्मा जी भ्रू मध्य भाग पुनि, प्रकटे ’रुद्र’ शम्भु ही॥३१॥
परमेश्वर भगवान प्रकृति से, ’महत’ सृष्टि रचकर के।
’अहंकार’ अरु अहं देवता, प्रकट प्रजापति करते॥
ब्रह्मा जी ही व्यक्त रूप प्रभु, आगे सृष्टि रचाने।
अहंकार से मन, इन्द्रिय अरु, पाँचों भूत बनाने॥३२॥
महतत्व ’अहंकार’ जन्म हो, दूजा सर्ग वखाने।
बुद्धि जनित, ’बुद्धियात्मक सृष्टि’, अहंकार मद माने॥
अहंकार वह आत्म बोध जो, स्व स्थापित करता।
श्रद्धा परम नकारे मद में, क्रोध भाव तन भरता॥३३॥
द्वेष, ईर्ष्या, दोष दूसरों, देखे स्वयं प्रशंसा।
मद से बुद्धि विवेक नशाये, पूर्ण विकारी मंशा॥
जीव कहे –मैं सविकल्प हूँ, इस से अहं उदय हो।
सत्-रज-तम गुण परिपोषण हो, अहंकार मदमय हो॥३४॥
ज्ञान शक्ति सत्-रजगुण बढ़ते, मह जन्मे जो विकार।
ज्ञान-क्रिया अरु द्रव्य रूप में, ’तमस रूप’ अहंकार॥
मन, इन्द्रियों, महाभूतों सा, अहंकार उद्भव है।
मैं अरु मेरा मोह आठ मद, ईर्ष्या-द्वेशह प्रभव है॥३५॥
तन-धन-कुल-बल-विद्या आदिक, मान कहे अभिमानों।
उच्चपना आवेशित ऐसा, चाहे निज सम्मानों॥
सहनशीलता, क्षमाशीलता, भाव नम्रता चोरे।
क्रूर, कठोर, कपट, उदंडी, सहष्णुता मुँह मोरे॥३६॥
आत्म निष्ठा, मैत्री लूटता, जग मर्यादा लंघे।
क्रोध-बैर ईश्वर भी भूले, दुस्साहस कर दंगे॥
अहंकार से मन इन्द्रियों, पाँचों तत्व उदय हों।
मन जन्मे ’सृष्टि अहंकरिक’, तृतीय सर्ग उदय हो॥३७॥
अहं भाव ’रुद्र’ अधिष्ठाता, साध्य देव ’संकर्षण’।
वैकारिक, तैजस अरु तामस, तीन भेद संकर्षण॥
सत्-रज-तम गुण क्रमशः शान्तिः, हलचल, मूढ़हि दर्शन।
ज्ञान, शक्ति अरु द्रव्य शक्तियों, क्रमशः ये संकर्षण॥३८॥
मन संकर्षण अहंकार का दैवी नाम ’कर्तृत्व’।
इन्द्रिय रूप ’कारणत्व’ कहाये, पाँचों भूत ’कर्मत्व’॥
अहंकार वैकारिक जन्मे, मनहिं संकल्प-विकल्प।
मन में विविध कामना, उतपति, स्वामी चन्द्र संकल्प॥३९॥
मन मंत्री से दैत्य, दनुज, ब्रह्मादि देव, नर हारे।
आत्मा से मिलने नहिं देवे, विषय भोग मति मारे॥
सब कुछ बना-बिगाड़ रहे हैं, कोई भोग न करते।
राजा (आत्मदेव) के ज्ञानाश्रय रहकर, अज्ञानों न सुधरते॥४०॥
Ahankar
अहंकार
अहंकार अच्छे-अच्छों को चौपट कर देता है। वह समर्पण, सच्ची खुशी, ज्ञान और मोक्ष तक में बाधक बनता है। गौतम बुद्ध के साथ आनन्द चालीस साल तक रहे, लेकिन उन्हें बुद्ध के जीते जी बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ। एक छोटी-सी बात बाधा बन गई, वे बुद्ध के चचेरे भाई थे और उम्र में बुद्ध से बड़े थे। आनन्द को बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन उनके बाद आए अनेक भिक्षुओं को बुद्धत्व प्राप्त हो गया। बुद्ध के महाप्रयाण के बाद उनके बुद्धत्व प्राप्त शिष्यों ने अपने गुरू के वचनों को लिपिबद्ध करने के लिए महासंघ का आयोजन किया। महासंघ मे आनन्द को शामिल होने नहीं दिया गया, क्योंकि उन्हें बुद्धत्व प्राप्त नहीं था। महासंघ का द्वार बंद हो गया, बाहर बैठकर आनन्द चौबीस घंटे तक रोते रहे। उन्होंने अपनी कमियों को टटोला, तो पता चला उन्होंने शर्ते लगा दी थीं, इसलिए सच्चे अर्थो में दीक्षित नहीं हो सके। उन्होंने बड़े भाई होने के अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए तीन छोटी ही सही, लेकिन शर्ते लगाई थीं, पहली शर्त कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा, आप मुझे कहीं भेज नहीं सकेंगे। दूसरी शर्त कि मैं जिस आदमी को आपसे मिलाने लाऊंगा, आप उससे मिलेंगे, इनकार नहीं करेंगे। तीसरी शर्त कि मैं जिस व्यक्ति को दीक्षा देने के लिए आपसे कहूंगा, आप उसे दीक्षा देंगे।
बुद्ध ने जीवनभर इन शर्तो का पालन किया, लेकिन आनन्द सच्चा शिष्य होने से चूक गया। जो बुद्ध के सर्वाधिक निकट था, वही अहंकार और अपनी मनमानी चलाने के प्रयास में चूक गया। अच्छी बात यह रही कि गलती का अनुभव करने पर आनन्द को भी बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
अहंकार अच्छे-अच्छों को चौपट कर देता है। वह समर्पण, सच्ची खुशी, ज्ञान और मोक्ष तक में बाधक बनता है। गौतम बुद्ध के साथ आनन्द चालीस साल तक रहे, लेकिन उन्हें बुद्ध के जीते जी बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ। एक छोटी-सी बात बाधा बन गई, वे बुद्ध के चचेरे भाई थे और उम्र में बुद्ध से बड़े थे। आनन्द को बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन उनके बाद आए अनेक भिक्षुओं को बुद्धत्व प्राप्त हो गया। बुद्ध के महाप्रयाण के बाद उनके बुद्धत्व प्राप्त शिष्यों ने अपने गुरू के वचनों को लिपिबद्ध करने के लिए महासंघ का आयोजन किया। महासंघ मे आनन्द को शामिल होने नहीं दिया गया, क्योंकि उन्हें बुद्धत्व प्राप्त नहीं था। महासंघ का द्वार बंद हो गया, बाहर बैठकर आनन्द चौबीस घंटे तक रोते रहे। उन्होंने अपनी कमियों को टटोला, तो पता चला उन्होंने शर्ते लगा दी थीं, इसलिए सच्चे अर्थो में दीक्षित नहीं हो सके। उन्होंने बड़े भाई होने के अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए तीन छोटी ही सही, लेकिन शर्ते लगाई थीं, पहली शर्त कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा, आप मुझे कहीं भेज नहीं सकेंगे। दूसरी शर्त कि मैं जिस आदमी को आपसे मिलाने लाऊंगा, आप उससे मिलेंगे, इनकार नहीं करेंगे। तीसरी शर्त कि मैं जिस व्यक्ति को दीक्षा देने के लिए आपसे कहूंगा, आप उसे दीक्षा देंगे।
बुद्ध ने जीवनभर इन शर्तो का पालन किया, लेकिन आनन्द सच्चा शिष्य होने से चूक गया। जो बुद्ध के सर्वाधिक निकट था, वही अहंकार और अपनी मनमानी चलाने के प्रयास में चूक गया। अच्छी बात यह रही कि गलती का अनुभव करने पर आनन्द को भी बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
जिसने मनुष्य जन्म लिया है वह कर्म को तो जानता ही है। भारतवासी यह भी जानता है कि हर कर्म का फल भी होता है। मिले कभी भी। गीता जैसा शास्त्र कर्म योग बता रहा है। जीवन और कर्म एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। हर कर्म के पीछे एक इच्छा भी होती है। इच्छा के बिना कोई कर्म होता ही नहीं। हमारे यहां कर्म को अच्छा और बुरा भी कहा जाता है। यह भी एक तथ्य है कि कर्म फल भोगने के लिए ही हमको किसी न किसी शरीर में जीना पड़ता है। क्लेश, कर्म और कर्म फल जिसमें अविद्या के द्वारा आशय नियत करें, उसी को जीव कहते हैं। अविद्या के आवरण हटते ही जीव अपने आत्म स्वरूप में आ जाता है। विद्या को ब्रह्म कहा है। पं. मधुसूदन ओझा ने अविद्या और कर्म को पर्याय बताया है। संसार अविद्या का क्षेत्र है। आत्मा विद्या का।
कर्म का स्वरूप बहुत व्यापक है। जितना हम जानते और मानते हैं, उससे कई गुणा अघिक है। स्थूल शरीर के कर्म, सूक्ष्म शरीर के कर्म और कारण शरीर के कर्म। प्रकृति के सत, रज, तम से भी प्रभावित होते हैं कर्म। हमारी सृष्टि शुरू होती है अव्यय पुरूष से। गीता में कृष्ण स्वयं को अव्यय पुरूष कहते हैं। पांच कलाएं होती हैं अव्यय पुरूष की- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्। इनमें मन-प्राण-वाक् सदा साथ रहते हैं और हमारी आत्मा बनते हैं। मन की गति जब आनन्द की ओर बढ़ती है, तब हमारी बुद्धि विद्या से जुड़ी होती है। धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य को विद्या कहते हैं। जब मन अविद्या से प्रभावित होता है, तब वाक् की ओर बढ़ता है। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश के रूप में। चूंकि इच्छा मन में उठती है,अत: मन की चित्त संज्ञा भी है। चुनाव करने वाला। परिभाषा के अनुसार तो मन-बुद्धि-आत्मा के समूह को चित्त कहते हैं। जीवन इच्छा के आधार पर चलता है। किस इच्छा को पूरी किया जाए, नहीं किया जाए अथवा दबा दिया जाए। इच्छा अपने आप पैदा होती है। पैदा नहीं की जा सकती। पूरी करने का निर्णय बुद्धि करती है। सारे काम का केन्द्र मन रहता है। यह मन अव्यय पुरूष का मन है, जो इच्छा पूर्ति के लिए प्राण-वाक् की ओर बढ़ता है। यह मन तो पूर्ण रूप से शुद्ध होता है। यह सृष्टि का मूल मन है और प्राणी मात्र के केन्द्र में यही मन होता है। इसी को कृष्ण अपना रूप कह रहे हैं।
जो मन हमारी समझ में आ रहा है, वह इसी मन का प्रतिबिम्ब होता है। इस पर प्रकृति के आवरण चढ़ जाने से इसका मूल स्वरूप हमें दिखाई नहीं पड़ता। मन पर इच्छाएं भी एक के बाद एक आती रहती हैं। नई उठती हैं, पुरानी नीचे दब जाती हैं। मन पर इच्छाओं की चिनाई होती जाती है। जैसे भवन निर्माण में ईटों की चिनाई होती है।
मन पर तीन प्रकार की चिनाई होती है। बीजचिति, देवचिति और भूतचिति। इच्छा के साथ ही प्राणों के द्वारा वाक् का स्वरूप बदलता जाता है। सबसे पहले अव्यय पुरूष के द्वारा अक्षर पुरूष का निर्माण होता है। वाक् अक्षर पुरूष की कलाओं-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र का रूप ले लेती है। इसको बीज चिति कहते हैं। क्योंकि इन्हीं तीन प्राणों से हमारी सृष्टि का निर्माण होता है। ये तीन प्राण ही हमारा ह्वदय बनते हैं। अव्यय पुरूष की कलाएं इनके गर्भ में रहकर कार्य करती हैं।
सारे प्राण देवता कहलाते हैं। इन देव प्राणों के योग से क्षर पुरूष का निर्माण होता है। इसको देवचिति कहते हैं। आगे की चिति से भूत सृष्टि का निर्माण प्रकृति के द्वारा होता है। इसे भूतचिति कहते हैं। ये तीनों चितियां मन पर ही होती हैं, अत: मन की भी चित्त संज्ञा होती है। चित्त को ही माया कहते हैं। बीजचिति को कारण शरीर, देवचिति को सूक्ष्म शरीर और भूतचिति को स्थूल शरीर कहते हैं।
बीजचिति में मन और प्राणों का योग होने से इसका विज्ञान भाव बना रहता है। इसी को विद्या कहते हैं। भूतचिति अविद्या का क्षेत्र है। इसमें प्राण और वाक् की प्रधानता रहती है। इसी मन-प्राण-वाक् से जो रूप बनते हैं, उनको ही कर्म कहा जाता है। तीनों यदि समभाव में रहते हैं तो सत्कर्म होते हैं। जहां प्राण के साथ अल्प ज्ञान रहता है, वहां विकर्म या विरूद्ध कर्म होते हैं। जहां अज्ञान हो और वाक् भी अल्प हो उसे अकर्म कहा जाता है। ज्ञानविहीन कर्म।
बीज के स्तर पर विद्या, अविद्या और कर्म आत्मा के प्रथम आवरण बनते हैं। यही क्रमश: सत्, रज और तम रूप प्रकृति होते हैं। प्रकृति कारण को कहते हैं। जीवन के सारे ज्ञानात्मक विकार विद्या से, सारे क्रियात्मक विकार कर्म से और अर्थात्मक विकार अविद्या से उत्पन्न होते हैं। आत्मा पुरूष रूप है। तीन आवरण चढ़ने के बाद इसी की जीव संज्ञा हो जाती है। बिना आवरण के तो ईश्वर होता है।
जब व्यक्ति में भूतचिति नष्ट होती है, तब मृत्यु होती है। देवचिति के हटने से ईश्वर का सामीप्य मिलता है। बीजचिति के समाप्त होने पर मुक्ति मिलती है। ईश्वर रूप प्रकट हो जाता है। जीव की एक अन्य परिभाषा भी की गई है। जिसमें अविद्या के द्वारा क्लेश, कर्म और विपाक अपना आशय नियत करे, उसे जीव कहते हैं। जीव के साथ 6 ऊर्मियां भी जुड़ी रहती है शोक, मोह, जरा, मृत्यु, क्षुधा और पिपासा।
जीव में प्राण की 6 प्रकार की वृत्तियां काम करती है-उत्पत्ति, विनाश, अगति, गति, अविद्या और विद्या। इन सबका निमित्त भी मन होता है। इसी प्रकार प्राण के द्वारा मन में भी वृत्ति भेद रहते हैं-प्रमाद, निद्रा, स्मृति, भ्रम और विकल्प। भ्रम को ही क्लेश कहते हैं। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश ये पंच क्लेश कहे गए हैं।
अविद्या तम है। मोह अस्मिता है। सुख मानकर किसी अर्थ से बंध जाना राग है। इसमें मन परतंत्र हो जाता है। दुख मानकर बंधना द्वेष है। अर्थ का तम से बंध जाना। अनिष्ट के भय से आत्मा को छिपाने का प्रयास अभिनिवेश है। राग में काम, लोभ, तृषा तथा द्वेष में क्रोध, मद, मत्सरता है। इन्हीं सब कारणों से आत्मा में कार्य-कारण भाव बना रहता है। प्रकृति साथ रहती है। कर्म जारी रहता है। कर्म से कुछ अदृष्ट अतिशय भी आत्मा से जुड़ जाते हैं। ये नए कर्म और क्लेश को गति देते हैं। कर्म के विपाक हैं-जन्म, आयु और भोग। ज्ञान से कर्म को नष्ट कर देना विपाक मुक्ति है।
मूल अव्यय कर्म का साक्षी रहता है। वही परा रूप शक्तिमान है। इसकी शक्ति ज्ञान, बल और क्रिया रूप है। इसी में भगवान बनाने वाले 6 भग-धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य, यश और श्री उपलब्ध रहते हैं। मनधर्मी है और अव्यय की अन्य कलाएं धर्म। वैराग्य से आसक्ति, ज्ञान से मोह, ऎश्वर्य से अस्मिता, धर्म से अभिनिवेश के आवरण हटते हैं। ईश्वर के भग रूप प्रकट हो जाते हैं। अत: कर्म ही धर्म है।
कर्म का स्वरूप बहुत व्यापक है। जितना हम जानते और मानते हैं, उससे कई गुणा अघिक है। स्थूल शरीर के कर्म, सूक्ष्म शरीर के कर्म और कारण शरीर के कर्म। प्रकृति के सत, रज, तम से भी प्रभावित होते हैं कर्म। हमारी सृष्टि शुरू होती है अव्यय पुरूष से। गीता में कृष्ण स्वयं को अव्यय पुरूष कहते हैं। पांच कलाएं होती हैं अव्यय पुरूष की- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्। इनमें मन-प्राण-वाक् सदा साथ रहते हैं और हमारी आत्मा बनते हैं। मन की गति जब आनन्द की ओर बढ़ती है, तब हमारी बुद्धि विद्या से जुड़ी होती है। धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य को विद्या कहते हैं। जब मन अविद्या से प्रभावित होता है, तब वाक् की ओर बढ़ता है। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश के रूप में। चूंकि इच्छा मन में उठती है,अत: मन की चित्त संज्ञा भी है। चुनाव करने वाला। परिभाषा के अनुसार तो मन-बुद्धि-आत्मा के समूह को चित्त कहते हैं। जीवन इच्छा के आधार पर चलता है। किस इच्छा को पूरी किया जाए, नहीं किया जाए अथवा दबा दिया जाए। इच्छा अपने आप पैदा होती है। पैदा नहीं की जा सकती। पूरी करने का निर्णय बुद्धि करती है। सारे काम का केन्द्र मन रहता है। यह मन अव्यय पुरूष का मन है, जो इच्छा पूर्ति के लिए प्राण-वाक् की ओर बढ़ता है। यह मन तो पूर्ण रूप से शुद्ध होता है। यह सृष्टि का मूल मन है और प्राणी मात्र के केन्द्र में यही मन होता है। इसी को कृष्ण अपना रूप कह रहे हैं।
जो मन हमारी समझ में आ रहा है, वह इसी मन का प्रतिबिम्ब होता है। इस पर प्रकृति के आवरण चढ़ जाने से इसका मूल स्वरूप हमें दिखाई नहीं पड़ता। मन पर इच्छाएं भी एक के बाद एक आती रहती हैं। नई उठती हैं, पुरानी नीचे दब जाती हैं। मन पर इच्छाओं की चिनाई होती जाती है। जैसे भवन निर्माण में ईटों की चिनाई होती है।
मन पर तीन प्रकार की चिनाई होती है। बीजचिति, देवचिति और भूतचिति। इच्छा के साथ ही प्राणों के द्वारा वाक् का स्वरूप बदलता जाता है। सबसे पहले अव्यय पुरूष के द्वारा अक्षर पुरूष का निर्माण होता है। वाक् अक्षर पुरूष की कलाओं-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र का रूप ले लेती है। इसको बीज चिति कहते हैं। क्योंकि इन्हीं तीन प्राणों से हमारी सृष्टि का निर्माण होता है। ये तीन प्राण ही हमारा ह्वदय बनते हैं। अव्यय पुरूष की कलाएं इनके गर्भ में रहकर कार्य करती हैं।
सारे प्राण देवता कहलाते हैं। इन देव प्राणों के योग से क्षर पुरूष का निर्माण होता है। इसको देवचिति कहते हैं। आगे की चिति से भूत सृष्टि का निर्माण प्रकृति के द्वारा होता है। इसे भूतचिति कहते हैं। ये तीनों चितियां मन पर ही होती हैं, अत: मन की भी चित्त संज्ञा होती है। चित्त को ही माया कहते हैं। बीजचिति को कारण शरीर, देवचिति को सूक्ष्म शरीर और भूतचिति को स्थूल शरीर कहते हैं।
बीजचिति में मन और प्राणों का योग होने से इसका विज्ञान भाव बना रहता है। इसी को विद्या कहते हैं। भूतचिति अविद्या का क्षेत्र है। इसमें प्राण और वाक् की प्रधानता रहती है। इसी मन-प्राण-वाक् से जो रूप बनते हैं, उनको ही कर्म कहा जाता है। तीनों यदि समभाव में रहते हैं तो सत्कर्म होते हैं। जहां प्राण के साथ अल्प ज्ञान रहता है, वहां विकर्म या विरूद्ध कर्म होते हैं। जहां अज्ञान हो और वाक् भी अल्प हो उसे अकर्म कहा जाता है। ज्ञानविहीन कर्म।
बीज के स्तर पर विद्या, अविद्या और कर्म आत्मा के प्रथम आवरण बनते हैं। यही क्रमश: सत्, रज और तम रूप प्रकृति होते हैं। प्रकृति कारण को कहते हैं। जीवन के सारे ज्ञानात्मक विकार विद्या से, सारे क्रियात्मक विकार कर्म से और अर्थात्मक विकार अविद्या से उत्पन्न होते हैं। आत्मा पुरूष रूप है। तीन आवरण चढ़ने के बाद इसी की जीव संज्ञा हो जाती है। बिना आवरण के तो ईश्वर होता है।
जब व्यक्ति में भूतचिति नष्ट होती है, तब मृत्यु होती है। देवचिति के हटने से ईश्वर का सामीप्य मिलता है। बीजचिति के समाप्त होने पर मुक्ति मिलती है। ईश्वर रूप प्रकट हो जाता है। जीव की एक अन्य परिभाषा भी की गई है। जिसमें अविद्या के द्वारा क्लेश, कर्म और विपाक अपना आशय नियत करे, उसे जीव कहते हैं। जीव के साथ 6 ऊर्मियां भी जुड़ी रहती है शोक, मोह, जरा, मृत्यु, क्षुधा और पिपासा।
जीव में प्राण की 6 प्रकार की वृत्तियां काम करती है-उत्पत्ति, विनाश, अगति, गति, अविद्या और विद्या। इन सबका निमित्त भी मन होता है। इसी प्रकार प्राण के द्वारा मन में भी वृत्ति भेद रहते हैं-प्रमाद, निद्रा, स्मृति, भ्रम और विकल्प। भ्रम को ही क्लेश कहते हैं। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश ये पंच क्लेश कहे गए हैं।
अविद्या तम है। मोह अस्मिता है। सुख मानकर किसी अर्थ से बंध जाना राग है। इसमें मन परतंत्र हो जाता है। दुख मानकर बंधना द्वेष है। अर्थ का तम से बंध जाना। अनिष्ट के भय से आत्मा को छिपाने का प्रयास अभिनिवेश है। राग में काम, लोभ, तृषा तथा द्वेष में क्रोध, मद, मत्सरता है। इन्हीं सब कारणों से आत्मा में कार्य-कारण भाव बना रहता है। प्रकृति साथ रहती है। कर्म जारी रहता है। कर्म से कुछ अदृष्ट अतिशय भी आत्मा से जुड़ जाते हैं। ये नए कर्म और क्लेश को गति देते हैं। कर्म के विपाक हैं-जन्म, आयु और भोग। ज्ञान से कर्म को नष्ट कर देना विपाक मुक्ति है।
मूल अव्यय कर्म का साक्षी रहता है। वही परा रूप शक्तिमान है। इसकी शक्ति ज्ञान, बल और क्रिया रूप है। इसी में भगवान बनाने वाले 6 भग-धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य, यश और श्री उपलब्ध रहते हैं। मनधर्मी है और अव्यय की अन्य कलाएं धर्म। वैराग्य से आसक्ति, ज्ञान से मोह, ऎश्वर्य से अस्मिता, धर्म से अभिनिवेश के आवरण हटते हैं। ईश्वर के भग रूप प्रकट हो जाते हैं। अत: कर्म ही धर्म है।
Wednesday, 21 July 2010
Tuesday, 13 July 2010
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