Friday, 23 July 2010

श्रेष्ठ आदमी के आचरण का दूसरे लोग अनुकरण करते हैं। इसलिए बड़े और श्रेष्ठ माने जाने वाले लोगों को अपने आचरण और अपनी जीवन शैली के प्रति विशेष रूप से सचेष्ट रहना चाहिए। दूसरे के संस्कारों का निर्माण करने से पहले स्वयं के संस्कारों का निर्माण जरूरी है। स्वयं को संस्कृत बनाकर ही दूसरों का संस्कार निर्माण किया जा सकता है।

संस्कार निर्माण का पहला सूत्र है -स्वार्थ का सीमाकरण। यह नहीं कहा जा सकता कि स्वार्थ को छोड़ दिया जाए। कोई भी व्यक्ति सर्वथा स्वार्थ को छोड़ नहीं सकता। राजनीतिक प्रणालियों में कितने परीक्षण हो गए। साम्यवादी प्रणाली में कम्यूनों का विकास हुआ, किंतु उन्हें लौटना पड़ा। यह समझ में आ गया कि वैयक्तिक स्वार्थ की पूर्ति हुए बिना आदमी में कोई अंत:प्रेरणा नहीं जाग सकती।

हमारी सबसे बड़ी अंत:प्रेरणा है स्वार्थ। वैयक्तिक स्वार्थ होता है, तब आदमी बहुत अच्छा काम करता है, मनोयोग से करता है। जहां समूह के लिए करना पड़ता है, वहां मनोवृत्ति दूसरे प्रकार की बन जाती है। वह सोचता है -सब काम कर रहे हैं, मैं अकेला नहीं करूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा। जहां कम्यून है, समुदायवाद है, वहां प्रेरणा दूसरा काम करती है। इसीलिए प्रजातंत्रीय प्रणाली में जितना विकास हो सका, व्यक्तिगत संपत्ति की स्वतंत्रता में जितना विकास हो सका, उतना नियंत्रित प्रणाली में नहीं हो पाया।

व्यक्तिगत स्वार्थ एक बहुत बड़ी प्रेरणा है। इस सचाई को हम अस्वीकार न करें। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता -अब स्वार्थ को छोड़ कर परमार्थ का जीवन जीएं। यह असंभव बात होगी और कोई मानेगा भी नहीं। इसलिए महत्वपूर्ण और जरूरी यह है कि यदि स्वार्थ को छोड़ न पाएं तो उसका सीमाकरण जरूर करें।

ऐसा स्वार्थ भी नहीं होना चाहिए, जो दूसरे के स्वार्थ में बाधा डाले, कठिनाई पैदा करे। यह है स्वार्थ का सीमाकरण। केवल अपना ही नहीं, दूसरों का हित भी तो सधना चाहिए। जहां इस तरह का संस्कार निर्मित होता है, हमारे व्यवहार की अनेक समस्याएं सुलझ जाती हैं। परिवारों में कलह क्यों होता है? इसीलिए कि जहां देवरानियां-जेठानियां अपने-अपने बच्चे को प्राथमिकता देना शुरू करती हैं। जहां सामुदायिक जीवन है, वहां अपने स्वार्थ को असीम न बनाएं, उसकी एक सीमा रखें कि इससे आगे नहीं बढ़ना है -तो समस्या कभी पैदा नहीं होगी।

संस्कार के निर्माण का दूसरा सूत्र है -उदार दृष्टिकोण। संकीर्ण दृष्टि से देखने वाला अपने आस-पास तक ही देख पाएगा। आदमी को दूर तक की, और आगे-पीछे की बात भी जरूर देखनी चाहिए। बहुत वर्ष पहले हम बीदासर की एक गली से होकर जा रहे थे। एक नोहरा देखा। उसकी जर्जर दीवारें ढह चुकी थीं, किंतु विशाल फाटक और उसमें झूलता बड़ा-सा ताला अभी भी लटक रहा था। आगे तो ताला लगा बड़ा-सा दरवाजा और नोहरे की चारों ओर की दीवारें ध्वस्त। ताले और दरवाजे का मतलब क्या रहा?

दृष्टिकोण संकुचित होगा तो व्यवहार में उलझनें पैदा होंगी। दृष्टिकोण व्यापक और उदार होगा तो व्यापक हितों की ओर ध्यान दिया जाएगा। संघर्ष का कारण ही संकुचित दृष्टिकोण है। संकुचित वृत्ति परिवार की भी समस्या है, समाज की भी समस्या है। बहुत सीमित दृष्टि से बात सोची जाती है इसलिए अनेक समस्याएं उलझ जाती हैं।

तीसरा सूत्र है -हीन भावना और अहंभावना से मुक्त रहने का अभ्यास। महिलाओं में हीन भावना की समस्या ज्यादा देखी जाती है, यह स्वाभाविक भी है। पुरुष को अहं भाव अधिक सताता है तो महिलाओं को हीन भाव ज्यादा सताता है। हीन भाव और अहं भाव से मुक्त होकर संतुलित जीवन कैसे जिया जाए, यह एक प्रश्न है। हीनता के कारण भय पैदा होता है। भय के अनेक कारण हैं। भय के कारणों में भी आदमी बैठा है, इसलिए भय होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। हीनता की अनुभूति भी अस्वाभाविक बात नहीं है, किंतु जिसे संस्कार का निर्माण करना है, उसके लिए यह अभ्यास जरूरी है कि वह कैसे हीनता और अहं की ग्रंथियों से बचे।

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