Friday 23 July 2010


प्रथम – सर्जन – सर्ग
(छन्द-ताटंक)

सत्ता परम पुरुष अरु व्यक्तिः, समष्टि-व्यष्टि रूप है।
श्रद्धा तभी परम प्रति होनी, ईश्वर विश्व रूप है॥
ध्येय युक्त जो बुद्धि कहाती, अस्त-व्यस्त व व्यवस्थित।
अस्त-व्यस्त जो ’द्वन्द्व बुद्धि’ है, ’समत्व बुद्धि’ व्यवस्थित॥२१॥

कर्तव और अकर्तव, धर्म व, अधर्म यथार्थ न जानें।
ऐसी ’बुद्धि राजसी’ होती, अहं भाव मदमानें॥
तामस गुण आवेश अधर्मों, माने धर्म जो बुद्धि।
कार्य रूप प्रकृति तेइसों, गुण विभाग ’विषय बुद्धि’॥२३॥

बुद्धि अधिष्ठाता ’ब्रह्मा जी’, उपास्य देव ’प्रद्युमन’।
बुद्धि तत्व प्रद्युमन कहाये, बुद्धि कार्य वृत्ति लक्षण॥
निश्चय, संशय, याद, विपर्यय, नीद वृत्तियाँ जानें।
कार्य शक्ति प्राणों की जानें, ज्ञान बुद्धि बल मानें॥२४॥

वेद, शास्त्र में किसी वस्तु का, स्वरूप वर्णन सुनने।
तद्‌ विषयक निश्चय होता जो, कहें ’श्रुत बुद्धि’ गुनने॥
ऐसे ही अनुमान युक्ति जो, वस्तु रूप निश्चय हो।
कहें वही ’अनुमान बुद्धि’ है, सादा रूप विषय हो॥२५॥

जो कुछ पढ़ा, सुना, देखा वह, स्मृति में ठहराये।
ऐसी ’प्रखर बुद्धि’ स्मृति गुण, स्थिर ज्ञान कराये॥
देखी वस्तु स्वरूप न असली, दूजी वस्तु समझ रह।
रजत सीप, रस्सी भुजंग कह, ’भेद बुद्धि’ विपर्यय॥२६॥

पुरुष-प्रकृति दोनों रूप का, अलग यथार्थ ज्ञान हो।
वही ’विवेक ज्ञान’ कहलाये, ज्ञानई जगत मान हो॥
महत्वाकांक्षा, कौशल बुद्धिः, सृजन, सभ्यता, संस्कृति।
वैभव सारा, दूरदर्शिता, ज्ञान ’विवेक बुद्धि’ कृति॥२७॥

विवेक ज्ञान समाधि लगाये, स्वच्छ पूर्ण निश्चल हो।
अविप्लव ये ज्ञान विवेकी, निर्मल स्वच्छ सवल हो॥
श्रुति, अनुमान बुद्धि तो सादा, ईश्वर ज्ञान कहाँ हो?
पूर्ण ज्ञान, अंग-प्रत्यंग संग, ’ऋतम्भरा प्रज्ञा’ हो॥२८॥

सोच-बोल अरु कृत्य जीव का, सब कल्याणक होये।
’ईश्वर बुद्धि’ ऋतम्भरा प्रज्ञा, परम श्रेष्ठतम होये॥
ध्येय वस्तु धारणा, ध्यान अरु, समाधि तीनों संयम।
विषय वस्तु संयम तुरन्त हो, मति प्रकाश फल संयम॥२९॥

यह अध्यात्म प्रसाद अलौकिक, ज्ञान शक्ति कहलाये।
प्रज्ञा का आलोक यही है, ’ऋतम्भरा’ कहलाये॥
परमेश्वर भगवान तेज से, तीनों देव प्रकट हों।
सृष्टि, पालना और प्रलय के, निमित्त स्वयं प्रकट हों॥३०॥

वाम पार्श्व से प्रजा पालने, ’विष्णु’ देवता प्रकटे।
पार्श्व दाहिने सृष्टि हेतु प्रभु, लोक पितामह प्रकटे॥
महादेअ की स्तुति दोनों, अविचल भक्ति प्राप्त की।
ब्रह्मा जी भ्रू मध्य भाग पुनि, प्रकटे ’रुद्र’ शम्भु ही॥३१॥

परमेश्वर भगवान प्रकृति से, ’महत’ सृष्टि रचकर के।
’अहंकार’ अरु अहं देवता, प्रकट प्रजापति करते॥
ब्रह्मा जी ही व्यक्त रूप प्रभु, आगे सृष्टि रचाने।
अहंकार से मन, इन्द्रिय अरु, पाँचों भूत बनाने॥३२॥

महतत्व ’अहंकार’ जन्म हो, दूजा सर्ग वखाने।
बुद्धि जनित, ’बुद्धियात्मक सृष्टि’, अहंकार मद माने॥
अहंकार वह आत्म बोध जो, स्व स्थापित करता।
श्रद्धा परम नकारे मद में, क्रोध भाव तन भरता॥३३॥

द्वेष, ईर्ष्या, दोष दूसरों, देखे स्वयं प्रशंसा।
मद से बुद्धि विवेक नशाये, पूर्ण विकारी मंशा॥
जीव कहे –मैं सविकल्प हूँ, इस से अहं उदय हो।
सत्‌-रज-तम गुण परिपोषण हो, अहंकार मदमय हो॥३४॥

ज्ञान शक्ति सत्‌-रजगुण बढ़ते, मह जन्मे जो विकार।
ज्ञान-क्रिया अरु द्रव्य रूप में, ’तमस रूप’ अहंकार॥
मन, इन्द्रियों, महाभूतों सा, अहंकार उद्‌भव है।
मैं अरु मेरा मोह आठ मद, ईर्ष्या-द्वेशह प्रभव है॥३५॥

तन-धन-कुल-बल-विद्या आदिक, मान कहे अभिमानों।
उच्चपना आवेशित ऐसा, चाहे निज सम्मानों॥
सहनशीलता, क्षमाशीलता, भाव नम्रता चोरे।
क्रूर, कठोर, कपट, उदंडी, सहष्णुता मुँह मोरे॥३६॥

आत्म निष्ठा, मैत्री लूटता, जग मर्यादा लंघे।
क्रोध-बैर ईश्वर भी भूले, दुस्साहस कर दंगे॥
अहंकार से मन इन्द्रियों, पाँचों तत्व उदय हों।
मन जन्मे ’सृष्टि अहंकरिक’, तृतीय सर्ग उदय हो॥३७॥

अहं भाव ’रुद्र’ अधिष्ठाता, साध्य देव ’संकर्षण’।
वैकारिक, तैजस अरु तामस, तीन भेद संकर्षण॥
सत्‌-रज-तम गुण क्रमशः शान्तिः, हलचल, मूढ़हि दर्शन।
ज्ञान, शक्ति अरु द्रव्य शक्तियों, क्रमशः ये संकर्षण॥३८॥

मन संकर्षण अहंकार का दैवी नाम ’कर्तृत्व’।
इन्द्रिय रूप ’कारणत्व’ कहाये, पाँचों भूत ’कर्मत्व’॥
अहंकार वैकारिक जन्मे, मनहिं संकल्प-विकल्प।
मन में विविध कामना, उतपति, स्वामी चन्द्र संकल्प॥३९॥

मन मंत्री से दैत्य, दनुज, ब्रह्मादि देव, नर हारे।
आत्मा से मिलने नहिं देवे, विषय भोग मति मारे॥
सब कुछ बना-बिगाड़ रहे हैं, कोई भोग न करते।
राजा (आत्मदेव) के ज्ञानाश्रय रहकर, अज्ञानों न सुधरते॥४०॥

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