Friday, 23 July 2010

जिसने मनुष्य जन्म लिया है वह कर्म को तो जानता ही है। भारतवासी यह भी जानता है कि हर कर्म का फल भी होता है। मिले कभी भी। गीता जैसा शास्त्र कर्म योग बता रहा है। जीवन और कर्म एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। हर कर्म के पीछे एक इच्छा भी होती है। इच्छा के बिना कोई कर्म होता ही नहीं। हमारे यहां कर्म को अच्छा और बुरा भी कहा जाता है। यह भी एक तथ्य है कि कर्म फल भोगने के लिए ही हमको किसी न किसी शरीर में जीना पड़ता है। क्लेश, कर्म और कर्म फल जिसमें अविद्या के द्वारा आशय नियत करें, उसी को जीव कहते हैं। अविद्या के आवरण हटते ही जीव अपने आत्म स्वरूप में आ जाता है। विद्या को ब्रह्म कहा है। पं. मधुसूदन ओझा ने अविद्या और कर्म को पर्याय बताया है। संसार अविद्या का क्षेत्र है। आत्मा विद्या का।

कर्म का स्वरूप बहुत व्यापक है। जितना हम जानते और मानते हैं, उससे कई गुणा अघिक है। स्थूल शरीर के कर्म, सूक्ष्म शरीर के कर्म और कारण शरीर के कर्म। प्रकृति के सत, रज, तम से भी प्रभावित होते हैं कर्म। हमारी सृष्टि शुरू होती है अव्यय पुरूष से। गीता में कृष्ण स्वयं को अव्यय पुरूष कहते हैं। पांच कलाएं होती हैं अव्यय पुरूष की- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्। इनमें मन-प्राण-वाक् सदा साथ रहते हैं और हमारी आत्मा बनते हैं। मन की गति जब आनन्द की ओर बढ़ती है, तब हमारी बुद्धि विद्या से जुड़ी होती है। धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य को विद्या कहते हैं। जब मन अविद्या से प्रभावित होता है, तब वाक् की ओर बढ़ता है। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश के रूप में। चूंकि इच्छा मन में उठती है,अत: मन की चित्त संज्ञा भी है। चुनाव करने वाला। परिभाषा के अनुसार तो मन-बुद्धि-आत्मा के समूह को चित्त कहते हैं। जीवन इच्छा के आधार पर चलता है। किस इच्छा को पूरी किया जाए, नहीं किया जाए अथवा दबा दिया जाए। इच्छा अपने आप पैदा होती है। पैदा नहीं की जा सकती। पूरी करने का निर्णय बुद्धि करती है। सारे काम का केन्द्र मन रहता है। यह मन अव्यय पुरूष का मन है, जो इच्छा पूर्ति के लिए प्राण-वाक् की ओर बढ़ता है। यह मन तो पूर्ण रूप से शुद्ध होता है। यह सृष्टि का मूल मन है और प्राणी मात्र के केन्द्र में यही मन होता है। इसी को कृष्ण अपना रूप कह रहे हैं।

जो मन हमारी समझ में आ रहा है, वह इसी मन का प्रतिबिम्ब होता है। इस पर प्रकृति के आवरण चढ़ जाने से इसका मूल स्वरूप हमें दिखाई नहीं पड़ता। मन पर इच्छाएं भी एक के बाद एक आती रहती हैं। नई उठती हैं, पुरानी नीचे दब जाती हैं। मन पर इच्छाओं की चिनाई होती जाती है। जैसे भवन निर्माण में ईटों की चिनाई होती है।

मन पर तीन प्रकार की चिनाई होती है। बीजचिति, देवचिति और भूतचिति। इच्छा के साथ ही प्राणों के द्वारा वाक् का स्वरूप बदलता जाता है। सबसे पहले अव्यय पुरूष के द्वारा अक्षर पुरूष का निर्माण होता है। वाक् अक्षर पुरूष की कलाओं-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र का रूप ले लेती है। इसको बीज चिति कहते हैं। क्योंकि इन्हीं तीन प्राणों से हमारी सृष्टि का निर्माण होता है। ये तीन प्राण ही हमारा ह्वदय बनते हैं। अव्यय पुरूष की कलाएं इनके गर्भ में रहकर कार्य करती हैं।
सारे प्राण देवता कहलाते हैं। इन देव प्राणों के योग से क्षर पुरूष का निर्माण होता है। इसको देवचिति कहते हैं। आगे की चिति से भूत सृष्टि का निर्माण प्रकृति के द्वारा होता है। इसे भूतचिति कहते हैं। ये तीनों चितियां मन पर ही होती हैं, अत: मन की भी चित्त संज्ञा होती है। चित्त को ही माया कहते हैं। बीजचिति को कारण शरीर, देवचिति को सूक्ष्म शरीर और भूतचिति को स्थूल शरीर कहते हैं।

बीजचिति में मन और प्राणों का योग होने से इसका विज्ञान भाव बना रहता है। इसी को विद्या कहते हैं। भूतचिति अविद्या का क्षेत्र है। इसमें प्राण और वाक् की प्रधानता रहती है। इसी मन-प्राण-वाक् से जो रूप बनते हैं, उनको ही कर्म कहा जाता है। तीनों यदि समभाव में रहते हैं तो सत्कर्म होते हैं। जहां प्राण के साथ अल्प ज्ञान रहता है, वहां विकर्म या विरूद्ध कर्म होते हैं। जहां अज्ञान हो और वाक् भी अल्प हो उसे अकर्म कहा जाता है। ज्ञानविहीन कर्म।
बीज के स्तर पर विद्या, अविद्या और कर्म आत्मा के प्रथम आवरण बनते हैं। यही क्रमश: सत्, रज और तम रूप प्रकृति होते हैं। प्रकृति कारण को कहते हैं। जीवन के सारे ज्ञानात्मक विकार विद्या से, सारे क्रियात्मक विकार कर्म से और अर्थात्मक विकार अविद्या से उत्पन्न होते हैं। आत्मा पुरूष रूप है। तीन आवरण चढ़ने के बाद इसी की जीव संज्ञा हो जाती है। बिना आवरण के तो ईश्वर होता है।

जब व्यक्ति में भूतचिति नष्ट होती है, तब मृत्यु होती है। देवचिति के हटने से ईश्वर का सामीप्य मिलता है। बीजचिति के समाप्त होने पर मुक्ति मिलती है। ईश्वर रूप प्रकट हो जाता है। जीव की एक अन्य परिभाषा भी की गई है। जिसमें अविद्या के द्वारा क्लेश, कर्म और विपाक अपना आशय नियत करे, उसे जीव कहते हैं। जीव के साथ 6 ऊर्मियां भी जुड़ी रहती है शोक, मोह, जरा, मृत्यु, क्षुधा और पिपासा।

जीव में प्राण की 6 प्रकार की वृत्तियां काम करती है-उत्पत्ति, विनाश, अगति, गति, अविद्या और विद्या। इन सबका निमित्त भी मन होता है। इसी प्रकार प्राण के द्वारा मन में भी वृत्ति भेद रहते हैं-प्रमाद, निद्रा, स्मृति, भ्रम और विकल्प। भ्रम को ही क्लेश कहते हैं। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश ये पंच क्लेश कहे गए हैं।

अविद्या तम है। मोह अस्मिता है। सुख मानकर किसी अर्थ से बंध जाना राग है। इसमें मन परतंत्र हो जाता है। दुख मानकर बंधना द्वेष है। अर्थ का तम से बंध जाना। अनिष्ट के भय से आत्मा को छिपाने का प्रयास अभिनिवेश है। राग में काम, लोभ, तृषा तथा द्वेष में क्रोध, मद, मत्सरता है। इन्हीं सब कारणों से आत्मा में कार्य-कारण भाव बना रहता है। प्रकृति साथ रहती है। कर्म जारी रहता है। कर्म से कुछ अदृष्ट अतिशय भी आत्मा से जुड़ जाते हैं। ये नए कर्म और क्लेश को गति देते हैं। कर्म के विपाक हैं-जन्म, आयु और भोग। ज्ञान से कर्म को नष्ट कर देना विपाक मुक्ति है।
मूल अव्यय कर्म का साक्षी रहता है। वही परा रूप शक्तिमान है। इसकी शक्ति ज्ञान, बल और क्रिया रूप है। इसी में भगवान बनाने वाले 6 भग-धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य, यश और श्री उपलब्ध रहते हैं। मनधर्मी है और अव्यय की अन्य कलाएं धर्म। वैराग्य से आसक्ति, ज्ञान से मोह, ऎश्वर्य से अस्मिता, धर्म से अभिनिवेश के आवरण हटते हैं। ईश्वर के भग रूप प्रकट हो जाते हैं। अत: कर्म ही धर्म है।

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