आध्यात्म विद्या सब विद्याओं की शिरोमणि है । इसलिए इसके जानने वाले को कुछ और जानने के लिए शेष नहीं रहता । भौतिक विद्याएँ तो सीमित क्षेत्र में कार्य करती हैं और उनका सीमित उपयोग है । जैसे धन प्राप्त करने की विद्या सीख कर आप खूब धन अर्जित कर सकते हैं परन्तु असीमित धन के बल पर भी क्या आप मन की शान्ति खरीद सकते हो ? मन की शान्ति जिससे की आप को सुखानुभूति होती है वह पैसे से नहीं मिलती ।
आप कभी यह भी देखेंगे कि पैसे से मन की शान्ति और सुख मिलता प्रतीत होता है । लेकिन सुख भी दो प्रकार का होता है । एक तो भ्रान्ति-जन्य सुख और दूसरा वास्तविक सुख । पैसे से प्राप्त होने वाला सुख वास्तव में सुख न होकर सुख की भ्रान्ति मात्र है जैसे की सीप में चाँदी की भ्रान्ति हो । यह भौतिक सुख क्षणिक होता है और उसके पीछे पहाड़ जैसा दु:ख छिपा होता है, तो वह सुख कहाँ से हुआ ?
भौतिक सुखों के बारे में तुलसीदास जी कहते हैं - ' स्वर्गउ स्वलप अंत दुखदाई ' अर्थात इस लोक से स्वर्ग लोक तक के सुख वास्तविक सुख की छाया मात्र है सत्य नहीं है । यदि कोई सारे जीवन इन प्रतिबिम्वित सुखों को लेकर खेलता रहा तो उसकी बुद्धि को क्या कहेंगे । परन्तु जो यथार्थ और शाश्वत सुख होता है वह तो आध्यात्मिक सुख ही है । इस प्रकार से विचारवान व्यक्ति तो इन दोनों सुखों की तुलना करता है परन्तु एक संसारी व्यक्ति भौतिक विषयों में सुख पाने की आशा रखकर इन्हें प्राप्त करने कि कामना करता है और सारा जीवन अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के प्रयास में गुजार देता है लेकिन उसकी कामनाओं का कभी अन्त नहीं होता । कामनाओं का रुप भले ही बदल गया हो लेकिन उसकी कामनायें कभी भी समाप्त नहीं होती ।
प्राचीन काल से जीवन का यही रुप चला आ रहा है । प्राचीनतम् साहित्य वेद हैं और वेदों ( तैत्तिरीय उपनिषद् ) में आता है कि हर व्यक्ति कामनाओं से प्रतिहत (घायल) है । तीनों लोकों में सब व्यक्ति कामनाओं से आक्रान्त होकर दु:ख पाते हैं । वहाँ पर कहा गया है कि व्यक्ति इस जगत् से ऊपर उठकर अपने आत्मस्वरुप को जाने तब इन कामनाओं की पीड़ा समाप्त हो । वही जीवन का उज्जवल रुप है । इस अवस्था के विषय में ऋषि कहते हैं - ' तत्र को मोहा क: शोक: एकत्वं अनुपश्यत् ' अर्थात् एक ऐसी अवस्था पर पहुँच गये कि एक ही तत्व सर्वत्र दिखाई देता है । जब अपने अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं तो मोह किससे होगा और जब कहीं मोह नहीं तो शोक हो तो कैसे हो ? और इस प्रकार दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो गई और व्यक्ति को परमानन्द की प्राप्ति हो गई ।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य इसी अवस्था को प्राप्त करना है । लेकिन जिस बुद्दि से व्यक्ति ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है, पूर्णता को प्राप्त कर सकता है, एक सही शिक्षा के अभाव में उसी बुद्दि को भ्रष्टाचार, दुराचार में प्रयोग करके अपना जीवन ही नष्ट कर ले और आसुरी जीवन जिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात क्या हो सकती है ? इसलिए विश्व की सभी संस्कृतियों का यही कहना है कि अपने को प्राप्त शक्तियों का सही प्रयोग करके जीवन के उच्च स्तरों को प्राप्त करो । भौतिक शिक्षा के साथ-साथ अपना चारित्रिक विकास भी करो और तब देखो कि कैसी सुखानुभूति होती है ।
व्यक्ति जो शाश्वत् सुख चाहता है वह शास्त्रों और गुरु की दी हुई शिक्षा के आधार पर प्राप्त कर सकता है । सभी संतों का यही अनुभव है कि शास्त्रों के अनुसार जीवन जीकर पता लगता है कि शास्त्रों में सब सत्य लिखा है । उदाहरण के रुप में एक धारणा यह है कि दरिद्री जीवन निकृष्ट जीवन है । शास्त्र भी कहते हैं कि यह बात ठीक है कि दरिद्री होने से सम्पन्न होना ज्यादा श्रेष्ठ है । लेकिन आप कहो कि सम्पन्नता ही अन्तिम बात है तो शास्त्र कहेगा कि यह गलत है, सम्पन्नता से सब कुछ प्राप्त नहीं होता । सम्पन्नता से आगे की चीज प्राप्त करने के लिए सम्पन्नता में अपनी आसक्ति छोड़ कर विरक्त हो जाओ । इस बारे में विचार करो, दूसरों के जीवन के उदाहरण भी देख लो और फिर इस प्रकार का विरक्त जीवन जीकर देखो । तब आपको पता लगेगा कि सम्पन्नता से भी अधिक आन्नददायक विरक्त जीवन है । इस सिद्धान्त की यथार्थता स्वंय अपने अनुभव से ज्ञात होती है । गौतम बुद्द, मीरा बाई, रामकृष्ण परमहँस आदि के जीवन के उदाहरण हमारे सामने हैं ।
शास्त्रों के बताये अनुसार परमात्मा पर विश्वास करके उसका नाम जप, ध्यान चिन्तन करो और स्वंय अपने अनुभव से देखो कि किस प्रकार हमारा आध्यात्मिक विकास होता है । व्यक्ति शरीर भाव से ऊपर उठ कर जीव भाव में आवे फिर विकास करते हुए आत्मभाव , परमात्म भाव में आवे । इससे व्यक्ति को भय, चिन्ता, क्लेश आदि से छुटकारा प्राप्त हो जाता है और अब वह भौतिक समृद्धि से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर भी नियंत्रण रखते हुए जीता है ।
आध्यात्म विद्या के व्यवहार में मुख्य बात है मानसिक शुद्धि । इसी के द्वारा आध्यात्मिक विकास होता है । इस आध्यात्म विद्या में आगे बढ़ने में बाधा भी केवल अशुद्ध मन है । कामनाओं से ग्रसित मन ही अशुद्ध मन है। मन को शुद्ध करने के लिए प्रारम्भिक उपाय है कि व्यक्ति समाज और शास्त्र के बनाये हुए जीवन जीने के नियमों (धर्म के नियमों ) में बंध कर जीवन व्यवहार करे । देखो अपने बन्धनों से छूटने के लिए व्यक्ति को बन्धन ही स्वीकार करना पड़ता है । और यदि धर्म की मर्यादा के नियमों को स्वेचछा से स्वीकार कर लें तो अधर्म के मार्ग पर चलने के कारण आने वाले अनपेक्षित बंधन उनके सामने नहीं आते । उदाहरण के रुप में यातायात के नियमों को मानने से ही और दूसरे आने वाले बंधनों (सड़क जाम, टकराहट आदि ) से छूट सकते हो ।
इसी प्रकार जीवन में जो धर्म के नियमों का पालन करेगा वह कहीं जाम में नहीं फँसेगा । माने उसके जीवन में विकास की गति रुकेगी नहीं । आपस में व्यवहार में टकराहट (गुस्सा, झगड़ा आदि ) नहीं होगी । एक स्वस्थ, सुन्दर समाज की रचना धर्म की सहायता से ही होगी, स्वेच्छाचारिता से नहीं। मानो धर्म ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का गेट वे आफ इण्डिया है । फिर भी धर्म के बल पर व्यक्ति को 20-25 प्रतिशत तक ही मानसिक शान्ति प्राप्त हो सकती है क्योंकि धर्म सीमित इन्द्रिय भोगों की स्वीकृति भी देता है जबकि अध्यात्म के मार्ग पर और आगे बढ़ने के लिए इन्द्रिय भोगों की कामनाओं को छोड़ना पड़ेगा , क्योंकि ये कामनायें व्यक्ति के मन को दूषित करती हैं और वह संसार जाल में और अधिक फँसता जाता है ।
उदाहरण के रुप में देखें कि अर्जुन के भाई धर्मराज युधिष्ठिर थे उनके साथ अर्जुन भी सदा धर्म के मार्ग पर चला लेकिन गीता के पहले अध्याय में वह शोक विह्लल होकर आँसू बहाने लगा । इससे पता लगता है कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को भी विषाद हो सकता है । इस विषाद से बचने का उपाय है गीता शास्त्र । भगवान कहते हैं कि धर्म का पालन तो करो लेकिन धर्म के आगे अध्यातम का जो मार्ग है उस पर जब तुम आगे बढ़ोगे तब इस शोक से तुम्हारी मुक्ति होगी । शोक होता है मोह के कारण । और अधिक सूक्ष्म विचार करें तो देखेंगे कि जब व्यक्ति को कामना होगी तो काम्य पदार्थों में मेरापन होगा एवं मोह होगा और मोह तो दु:ख देगा ही । इसके माने भोग्य पदार्थों की कामना त्यागने वाले व्यक्ति मोह से भी छूट जायेगा । समस्त मानसिक विकारों का मूल कामना ही है । कहा गया है कि ' आशायां परमं दुखं निराशायां परमं सुखम् ' - यहाँ पर कामना ही आशा है । जब तक आशा है तब तक दु:ख है । कामना छोड़ दें तो परम सुख है । लेकिन कामना के माने ' संकल्प प्रभावन्कामान् ' है , परमात्मा को पाने की कामना, कामना नहीं कहलाती । और इन कामनाओं पर विजय प्राप्त करना का उपाय है कि निष्काम भाव से कर्म करने का अभ्यास करे । कामनाओं के दोष भी देखें कि भौतिक विषयों की कामना पूर्ण होने पर भी कभी तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि फिर से नई कामना उत्पन्न हो जाती है ।
विचार करें कि जीवन कामनाओं से नहीं वरन् पुरुषार्थ से चलता है । व्यक्ति के अपने ही कर्म (पुरुषार्थ) ही आगे चलकर प्रारब्ध बनकर पुन: उसे मनुष्य का या किसी और प्राणी का शरीर प्राप्त कराते हैं । मनुष्य शरीर में भी सबका प्रारब्ध अलग- अलग है । यदि व्यक्ति का प्रारब्ध रजोगुण प्रधान है तो उसकी कामनायें प्रबल होंगी और इन कामनाओं से एकदम से छुटकारा नहीं हो सकता । भगवान् गीता के तीसरे अध्याय में कहते हैं कि ये कामनायें तुम्हारी सबसे बड़ी शत्रु हैं । इनके वास स्थान इन्द्रिय , मन और बुद्धि हैं । पहले तो इन्हें इन्द्रियों से भगाओ, भले ही ये भाग कर मन में बैठ जायें, परंतु कामना पर विजय यहीं से प्रारम्भ होती है ।
मनुष्य शरीर इसीलिए मिला है कि काम पर विजय प्राप्त करें । काम के माने केवल सेक्स नहीं है वरन् पाँचों इन्द्रिय-विषयों की मन में जो भी कामना उत्पन्न होती है वह सब कांम है । इसलिये व्यक्ति को निष्काम भाव रखते हुए पुरुषार्थ करते रहना चाहिये । इससे मन को विक्षिप्त करने वाली कामनायें समाप्त होकर मन शान्त होगा और व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त करने का अधिकारी होगा । इतिहास देखें तो पायेंगे कि सब संतों ने कामनाओं पर विजय प्राप्त की और वे महान् संत हुए, उनके लिए पुरुषार्थ करना कोई कठिन बात नहीं थी ।
शारीरिक जीवन-यात्रा चलाने के लिए जो कार्य किया जाता है चाहे वह निष्काम भाव से ही हो परन्तु वह भौतिक कार्य है । परन्तु यह निष्कामता उसके मन को इतना शांत बना देगी कि उसके मन में समझ आ जायेगा कि यदि हम भौतिक कार्य न करके आध्यात्मिक कार्य करें तो भी हमारा जीवन चल सकता है । " अनन्याश्चिन्तयन्तो मां, ये जना: पुर्युपास्ते " अर्थात अपने चित्त को परमात्मा में पूरी तरह जोड़ दो तो आपको अप्राप्त के प्राप्त की और प्राप्त की रक्षा करने का काम परमात्मा स्वंय करेगा । अनन्य की परिभाषा तुलसीदास जी ने स्वंय दी है- " सो अनन्य जाके मति अस न टरै हनुमन्त , मैं सेवक सचराचररुप स्वामि भगवन्त " -भगवान हनुमान जी को बता रहे हैं कि हे हनुमान अनन्य भक्ति वह होती है जब बुद्धि में यह आ जाये कि सारे विश्व में एक परमात्मा विद्यमान है और सारा जगत् उसी परमात्मा का ही एक रुप है और मैं उस परमात्मा का सेवक हूँ।
कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति निष्काम कर्म करने के बाद इस अवस्था में आ जाये कि हमें सारे जगत् की परमात्मा भाव से सेवा करनी है, जो व्यक्ति ऐसा करेगा परमात्मा जगत् के रुप में उसको अपना लेगा । परमात्मा की शरण में जाने को ही परमात्मा की उपासना कहते हैं । और ऐसे व्यक्ति को ही आगे विकास करते -करते परमात्मा की प्राप्ति होती है । जब व्यक्ति पारंपरिक तरीके से ऐसे गुरु से अध्यात्म विद्या सीखता है जिन्होंने अध्यात्म विद्या सीखकर उसके द्वारा तद्रूप अपने जीवन का निर्माण किया है तो व्यक्ति का अहंकार धीरे-धीरे घटता है । उसकी कामनायें घटती हैं । गुरु बताते हैं कि अपनी कामनाओं को समाप्त करने के लिए भौतिक कामनाओं के स्थान पर अपने ऊपर आध्यात्मिक कामनाओं का अध्यारोपण करें । आध्यात्मिक कामना में इतनी सामर्थ्य है कि वह भौतिक कामना को समाप्त कर देगी । यह सबके जीवन का अनुभव है कि दूसरी कोई काम्य वस्तु बुद्धि में आकर बैठ गई तो फिर पहले वाले काम्य पदार्थों में उसकी आसक्ती समाप्त हो जाती है ।
इसलिए विचार करो और साथ-साथ तीन बातों का ध्यान रखो कि (1) हमारे मन में विचारों की क्वालिटी श्रेष्ठ हो । (2) हमारे अन्त:करण में विचारों की सँख्या कम हो, उच्च कोटि के विचार सँख्या में कम होते हैं । (3) हमारे विचारों की दिशा अन्तर्मुखी हो ।
शांत होकर हम अपने अन्त:करण को देखें तो पता चलेगा कि जब भी कोई वाह्य विषय ( जैसे पुष्प) इन्द्रियों के द्वारा मन के सम्मुख आता है तो मन उसी विषय का आकार धारण कर लेता है । इसे विषयाकार वृत्ति कहते हैं । अब बुद्धि अपने चित्त में पूर्व संचित ज्ञान का सहारा लेकर उस विषय को पहचानने का प्रयत्न करती है । इस प्रकार पुष्प का ज्ञान हुआ तो इस पुष्प को जानने वाला एक अहं भी होता है। जब मन-बुद्धि की वृत्तियाँ कार्य करती हैं तो एक अहं की वृत्ति लगातार रहती है और बदलते हुए विषयों के ज्ञान में भी अहं वृत्ति एकसमान बनी रहती है । जब अहंकार होता है तो मन-बुद्धि की वृत्तियाँ कार्य करती हैं परन्तु जब अहंकार नष्ट हो जाता है जैसे सुषुप्तावस्था में, तो मन-बुद्धि की वृत्तियाँ भी लय हो जाती हैं । इससे सिद्ध होता है कि मन-बुद्धि की वृत्तियाँ इस अहंवृत्ति के अधीन हैं । अहं का मतलब है अपने अस्तित्व का बोध, इसका अर्थ घमण्ड नहीं है ।
अध्यात्म विद्या ऐसी साधना कराती है कि यह वैयक्तिक अहंकार समाप्त होकर उसके स्थान पर एक सर्वव्यापी चेतना में अहं भाव आ जाय । व्यावहारिक जीवन में भी देखते हैं कि ये वैयक्तिक अहंकार, गर्व, दर्प, घमण्ड, ईर्ष्या आदि उत्पन्न करता है और घातक है परन्तु व्यक्ति जब तक अज्ञान में है तब तो इसी मिथ्या अहंकार को सत्य समझकर इसकी रक्षा करता है । अहंकार का कारण तो अज्ञान (अविद्या ) है परन्तु इसका अधिष्ठान अज्ञान नहीं है वरन् वही सर्वव्यापी चैतन्य है जो वास्तविक अहं है। उदाहरण के रुप में तरंग के उत्पन्न होने का कारण तो वायु है परन्तु तरंग का अधिष्ठान वायु नहीं वरन् जल है ।
अविद्या ही सत्त्व, रजस व तमस है । यही प्रारब्ध है, यही कारण शरीर है । जब तक कारण विद्यमान है यह मन-बुद्धि व अहंकार रुपी तरंगे उत्पन्न करता रहता है । सुषुप्तावस्था में कोई तरंगे नहीं परन्तु उसके कारण शरीर में विद्यमान रजोगुण जब जोर मारता है तो उसके अन्त:करण में विद्यमान अहंकार और मन-बुद्धि की ये वृत्तियाँ पुन: उत्पन्न हो जाती हैं और वह जाग्रत अथवा स्वप्नावस्था में आ जाता है । इस प्रकार से जब तक ये तीनों गुण शान्त नहीं होते तब तक व्यक्ति सारा जीवन इन्हीं अवस्थाओं में घूमता रहता है । और अहंकार की वृत्ति कभी लीन हो जाती है कभी प्रकट हो जाती है ।
वाह्य जगत् प्रकृति का विशाल क्षेत्र है और भौतिक वैज्ञानिकों ने खोज करके इस वाह्य प्रकृति के बारे में कुछ नियम बना दिये हैं । विद्यार्थी प्रयोगशालाओं में प्रयोग करके उन नियमों को सत्य पाते हैं । इसी प्रकार हमारे ऋषि-मुनियों ने आंतरिक जगत् की प्रकृति की खोज की और जो नियम बताये उन्हें अपने ह्रदय की प्रयोगशाला में देखो और उनकी सत्यता परखो । अगर आपने उनकी सत्यता समझ ली तो आप भी आध्यात्मिक वैज्ञानिक बन गये । यदि आपने निष्काम कर्मयोग और कामना त्याग की साधना के द्वारा अपने में सत्त्वगुण इतना बढ़ा लिया कि अनुकूल -प्रतिकूल परिस्थिति में सम भाव से रह सकते हैं और आपका सौम्य स्वभाव हो गया है तो आप अपने ह्रदय में प्रवेश करके परमात्मा को प्राप्त करने के अधिकारी हो ।
ऐसे ही व्यक्ति के लिये भगवान् गीता के छठे अधायाय में साधना बताते हुए कहते हैं कि एकान्त स्थान में सुखासन में बैठकर शरीर को सीधा रखो और समस्त इन्द्रियों पर संयम रहे । अब मन को वाह्य विषयों से हटाकर अपने ह्रदय में ले जाओ और वहीं ह्रदय में रुकने का अभ्यास करो, मानो कि परमात्मा अकेले में मिलता है । ह्रदय के माने शारीर का कोई अंग नहीं बल्कि जिस समय अपने मन-बुद्धि, अहंकार की वृत्तियों को इनके लक्षणों के आधार पर देख रहे होते हैं तो हम जहाँ कहीं भी होते हैं उसी का नाम ह्रदय है । यह अशरीरी अवस्था है । छन्दोग्य उपनिषद् में ह्रदय का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वाह्य आकाश के समान उतना ही बड़ा आकाश अपने भीतर भी है, उसी में मन-बुद्धि, अहं की वृत्तियाँ विद्यमान हैं और वहीं पर इन वृत्तियों के अधिष्ठान के रुप में परमात्मा मिलेगा । लेकिन यदि व्यक्ति के भीतर वाह्य संसार की आसक्तियाँ (रजोगुण जन्य) हुई तो फिर इस आन्तरिक खोज में बाधा पड़ती है, क्योंकि ध्यानावस्था में मन उन आसक्तियों की और भागता है । इसलिए भगवान् राम को बताना पड़ा - " सब कर ममता ताग बटोरी, मम पद रहे बाँध बरजोरी "- अर्थात् व्यक्ति की ममता बहुत जगह होती है और व्यक्ति के सूक्ष्म तन्तु इस से जुड़े रहते हैं । भगवान् कहते हैं कि उन सब स्थानों से ममता के तन्तुओं को काटो और उन सब को इकट्ठा करके बटकर (बटोरी) एक रस्सी बना लो और उसको हमारे परमात्मा के पैरों में जोड़ दो । इसके माने मन में कल्पना करो कि मन के सामने अनुरक्त होने के लिए कोई सांसारिक वस्तु है ही नहीं, ऐसे में ध्यान से हटकर मन जायेगा कहाँ ? परमात्मा में लगाया तो वहीं लगा रहेगा । इस अवस्था में ह्रदय में रुको और अपनी अन्तर्दृष्टि से देखो कि ह्रदय में दो प्रकार की चीजें दिखाई देंगी - एक परिवर्तनशील और एक अपरिवर्तनशील । पहले केवल बदलने वाली वृत्तियाँ (परिवर्तनशील ) दिखाई देती हैं ।
वृत्तियाँ भी तीन प्रकार की होती हैं । (1) विजातीय वृत्तियाँ - अलग - अलग समय पर अलग - अलग वृत्तियाँ जैसे कभी घटाकर वृत्ति कभी पटाकर वृत्ति । (2) सजातीय वृत्तियाँ - एक ही प्रकार की वृत्ति बार-बार आती है । (3) स्वगत वृत्ति । तो परमात्मा तक पहुँचने के लिये पहले तो इन विजातीय वृत्तियों से पिण्ड छुडाओ । फिर सजातीय वृत्ति को आने दो माने एक ही प्रकार की वृत्ति बार-बार आती रहे, परन्तु जगत् का चिन्तन न हो। इसके लिये ऊँ की वृत्ति अपने मन में लाओ । जब अपने मन में ऊँ बोलोगे तो ओंकार की वृत्ति बन गई । दोबारा फिर ओंकार बोलो । इसी प्रकार बार-बार ओंकार की वृत्ति आने दो, यहाँ वृत्तियाँ बदल तो रही हैं लेकिन सब वृत्तियाँ एक सी हैं । इतना करना भी बहुत बड़ी सफलता है ।
इस अभ्यास को करते-करते विचार करो कि ओंकार की वृत्ति तो परिवर्तित हो रही है, परन्तु एक ऐसी चेतना है जिससे इस ओंकार की वृत्ति का उत्पन्न होना और लीन होना दिख रहा है । उपनिषद के ऋषि कहते हैं " न सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं नेमा विद्यतो भान्ति कुतोयमग्नि " - अर्थात् वहाँ पर न सूर्य है न चन्द्रमा और तारे , न ही वहाँ पर कोई बिजली चमक रही है और न ही कोई दीपक जल रहा है । वहाँ रोशनी काहे की है । जिसमें ओंकार की वृत्ति प्रकाशित हो रही है ।
हमें मानना पड़ेगा कि कोई एक प्रकाश है जिसमें यह वृत्ति प्रकाशित हो रही है और वह भौतिक प्रकाश नहीं है चेतना का प्रकाश है ।
मान लो क्षण भर के लिए ओंकार की वृत्ति शान्त हो जाय, अन्य कोई वृत्ति न हो तो कैसे ज्ञान होगा कि अब कोई भी वृत्ति नहीं है ? उसी चेतना के प्रकाश में ज्ञान होगा कि अब कोई भी वृत्ति नहीं है और पुन: ओंकार की वृत्ति उत्पन्न होगी तो उसी चेतना के प्रकाश में यह भी ज्ञान होगा कि अब एक वृत्ति उत्पन्न हो गई । वृत्तियाँ बदलती रहेंगी लेकिन चेतना का प्रकाश सदा एक समान बना रहेगा । यह चेतना सुषुप्ति , तुरीय, बेहोशी तक की अवस्था में बनी रहती है । इसका कभी अभाव नहीं होता । यह चेतना व्यक्ति को अपने ह्रदय में मिलती है, और इसका नाम है " साक्षी " । यह वृत्तीयों का असंग द्रष्टा है । इस चेतना का कोई रुपाकार नहीं, इसकी कोई सीमा नहीं ।
सदा बनी रहने वाली इस साक्षी चेतना की नित्यता का अनुभव करो । यह स्वंय अपनी सत्ता से विद्यमान है । इसके लिए शरीर-मन-बुद्धि की आवश्यकता नहीं है । मन-बुद्धि की वृत्तियों के शान्त होने के बाद भी यह विद्यमान है । इसी साक्षी को आत्मा कहते हैं । यह आत्मा ही परमात्मा है ।
इस अभ्यास में ध्यान यही रखना है कि ओंकार की वृत्ति का प्रवाह निरंतर हो, बीच में विजातीय वृत्ति न आने पाये । हर वृत्ति का अधिष्ठान आत्म चेतना है । उसी चेतना से ओंकार की वृत्ति उत्पन्न होती है और उसी में लीन हो जाती है तो ओंकार के साथ लगे रहोगे तो परमात्मा तक पहँच जाओगे । जितना ही परमात्मा को प्राप्त करने के लिये प्रेम होगा और रुची होगी, श्रद्धा होगी, उतनी ही जल्दी उस व्यक्ति को सफलता प्राप्त होगी । इस प्रकार परमात्मा में भक्ति, उसका ज्ञान, उसका ध्यान, उसका नाम सभी परमात्मा तक पहुँचाने वाला है। तुलसीदास जी कहते हैं कि -
व्यापक एक ब्रह्म अविनासी, सत चेतन घन आनन्दरासी ।
अस प्रभु ह्रदय अछत अबिकारी, सकल जीव जग दीन दुखारी ।।
नाम निरुपन नाम जतन ते, सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन ते ।।
परमात्मा तो सब जगह विद्यमान है तो अपने ह्रदय में भी है और वह सत् चित् आनन्द स्वरुप है तो अपने ह्रदय में परमात्मा के आनन्द का अनुभव होना चाहिये । फिर भी यदि उसका अनुभव नहीं हो रहा है तो इसका कारण है कि वह एक प्रकार से आच्छादित सा है । आप अपने ह्रदय में रामनाम जपो और यह नाम आपको परमात्मा तक पहुँचा देगा । आप नाम के साथ आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो । वह आप को जहाँ ले जाता है वहाँ अपने शान्त मन से अनुभव करो, देखो क्या है । वहाँ आप को परमात्मा के वे सभी लक्षण मिलेंगे जो शास्त्रों में कहे गये है ।
इस प्रकार से इस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो तो धीरे-धीरे करके कालांतर में आपके पुरुषार्थ और ऋषियों के आशीर्वाद से सफलता अवश्य प्राप्त होगी ।
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